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________________ ------------------0-0--0- ४६० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय से किसी विशेष व्यक्ति का नाम न रहकर उस शाखा के राजाओं की उपाधि बन गई थी. सूर्यवंशी क्षत्रियों की यह यम शाखा अपनी दान-दक्षिणा, न्यायशीलता और ज्ञानचर्चा के लिये बहुत प्रसिद्ध थी. इसी कारण इस शाखा का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण १३, ४, ३, ६.' और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के दसवें सूक्त तथा अथर्व १८ काण्ड के पहले सूक्त में भी भी मिलता है. उक्त उल्लेखों से यम लोगों की ज्ञानलिप्सा व सभ्यता का पर्याप्त परिचय प्राप्त होता है. ईरान की धर्मपुस्तक छन्द-अवस्ता (Zend Avesta) में यम को मित्र कहा गया है तथा यम को प्रथम राजा एवं धर्म और सभ्यता का संस्थापक बतलाया गया है. वहां यह भी उल्लिखित है कि सदाचारी लोग मित्र के साथ अहुरमजद (असुरमहतवृषभ) का भी दर्शन करते हैं. वैदिक साहित्य के अनुरूप ही छन्द अवस्त में यम के पिता का नाम वियस्वत (विस्वत) दिया हुआ है और यमपुरी को धर्मात्मा लोगों की निवासभूमि बतलाया गया है. अध्यात्मविद्या की शिक्षा-दीक्षा पद्धति–उल्लिखित आख्यानों से यह स्पष्ट है कि भारत में अध्यात्म विद्या के वास्तविक जानकार क्षत्रिय लोग थे. परम्परा से उन्हीं लोगों में अध्यात्म तत्त्वों का मनन होता चला आ रहा था और उन्हीं के महापुरुष घर-बार छोड़ भिक्षु बन जंगलों में रहते हुए तप ध्यान श्रद्धा द्वारा आत्म-साधना किया करते थे.' उन्होंने यह विद्या उस समय तक ब्राह्मण लोगों को न दी जब तक उन्हें परीक्षा करके यह विश्वास न हो गया कि वे (ब्राह्मण) लोग शुद्ध बुद्धि नम्रभाव एवं शिष्य वृत्ति से इसे ग्रहण करने के लिये उत्सुक हैं. अध्यात्मबोध पाने के लिये परिग्रह से विरक्ति और मन वचन काय की शुद्धि की आवश्यकता होती है। इसी साधना के अर्थ पातंजलयोग दर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि रूप अष्टांग मार्ग की व्याख्या की गई है. अध्यात्मविद्या अनधिकारी के हाथों में पड़कर दूषित न हो जाय. इस विचार से अध्यात्मवादी क्षत्रियों का सदा यह नियम रहा है कि यह विद्या श्रद्धालु और शान्तचित शिष्यों के सिवाय किसी और को न दी जाय, चाहे वह सागर से घिरी धनपूर्ण सम्पूर्ण पृथ्वी भी पुरस्कार में देने को तैयार हो. इसी कारण उपनिषदों में अध्यात्मविद्या को रहस्यविद्या व गुह्यविद्या कहा गया है. स्वयं उपनिषत् (उप+निषत्) शब्द का अर्थ है पूज्य पुरुषों के चरणों में रह कर उनके सान्निध्य से प्राप्त होने वाली विद्या, अर्थात् वह रहस्य विद्या जो गुरु के निकट रह कर साक्षात् उनकी वाणी और जीवन से ग्रहण की जाती है. इस प्रकार विनीत, श्रद्धालु और अन्तेवासी शिष्यों को एकान्त में मौखिक रूप से आध्यात्मिक शिक्षा देने की प्रथा केवल उपनिषत्काल में ही प्रचलित न थी, बल्कि यह प्रथा भारत के शैव, शाक्त, जैन, बौद्ध आदि अध्यात्मवादी लोगों में आज तक भी प्रचलित है. इसी प्रथा का फल है कि आज से पचास वर्ष पहले १. यमो वैवस्वतो राजेन्याह० शत-बा० १३, ४, ३, ६ अर्थात् विवस्वत के पुत्र यम राजा ने कहा है. २. तपः श्रद्धे ये ह्यपवसन्त्यरण्ये शान्ता विद्वांसो भेच्यचर्या चरन्तः । सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा । मुण्डक उप० १, २,११।। ३. विभेत्यल्पश्रुताद् वेदो, मामयं प्रहरिष्यति-महाभारत, आदिपर्व १-२६७, अर्थात् वेद अल्पश्रुत से डरता है कि कहीं यह मुझे बिगाड़ न दे. ४. (अ) वेदान्तं परमं गुह्य, पुराकाले प्रचोदितम् । नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्राय शिष्याय वा पुनः । यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ । तस्यैते कथितास्यार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।। श्वेताश्वतर उप०६-२२-२३. (आ) इदं वाव तज्येष्ठाय पुत्राय पिता ब्रह्म प्रब्रूयात्, प्राणाध्याय वान्तेवासिने | नान्यस्मै कस्मैचन, यद्यष्यस्या इमामद्धि : परिगृहीतां धनस्य पूर्णां दद्यात् , एतदेव ततो भूय इत्येतदेव ततो भूय इति-छान्दोग्य उप०३-११-५-६. (इ) मुण्डक उपनिषद्-३, २,१०।१, २, १३ . (ई) यास्काचार्यकृत निरुक्त २-१. Jain Educa S .org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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