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________________ ४८८८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय (तिरहुत, बिहार) में से घूमता हुआ काशीराज अजातशत्रु के पास आत्मचर्चा के लिये पहुंचा और कहने लगा कि मैं तुझे ब्रह्म की बात बताऊँगा. अजातशत्रु ने कहा कि यदि तुम ब्रह्म की व्याख्या कर पाओगे तो मैं तुम्हें एक हजार गायें दक्षिणा में दूंगा. गार्ग्य ने व्याख्या करनी चाही परन्तु वह सफल न हुआ. उसका आज तक का शिक्षण आधिदैविक परम्परा में हुआ था. अतः स्वभावतः उसकी दृष्टि बाह्यमुखी थी. उसने बाह्य के महिमावान पदार्थों में ब्रह्म का साक्षात्कार करते हुए कहा - 'यह जो सूर्यमण्डल में पुरुष है, यह जो चन्द्रमण्डल में पुरुष है, यह जो विद्युन्मण्डल में पुरुष है, यह जो मेघमण्डल में पुरुष है, यह जो आकाशमण्डल में पुरुष है, यह जो वायुमण्डल में पुरुष है, यह जो अग्निमण्डल में पुरुष है, यह जो जनमण्डल में पुरुष है, यह जो दर्पण में पुरुष है, यह जो प्रतिध्वनि में पुरुष है, यह जो छाया में पुरुष है, इसी की मैं ब्रह्मरूप से उपासना करता हूं. यह जो शरीर है, यह जो प्रज्ञा है, यह जो दाहिने नेत्र में पुरुष है, यह जो बायें नेत्र में पुरुष है, इसी की मैं ब्रह्मरूप से उपासना करता हूं.' इतना कुछ कहने पर अजातशत्रु ने कहा कि क्या इतना ही तेरा ब्रह्मज्ञान है ? इस पर गार्ग्य ने कहा- हां इतना ही.' तब अजातशत्रु ने कहा कि तु वृथा ही मुझ से ब्रह्म का संवाद करने आया है, इनमें से कोई भी ब्रह्म नहीं है. ये सब तो उसके कर्म मात्र हैं. इनका जो कर्ता है वह जानने योग्य है. तदनन्तर हाथ में समिधा ले उसके पास जाकर बोला- 'मैं तेरे पास शिष्य भाव से आया हूं, तू मुझे आत्मविद्या का उपदेश दे' तब अजातशत्रु ने उसे बताया कि जैसे क्षुरधान में क्षुर, काष्ठ में अग्नि सर्वत्र व्याप्त है, ऐसे ही शरीर में नख से शिखा तक आत्मा व्याप्त है. उस साक्षी आत्मा का ये वाक्, मन, नेत्र, कर्ण पादि सभी इन्द्रियां अनुगत सेवक की तरह अनुसरण करती हैं. जैसे एक धनी पुरुष का उसके आश्रित रहने वाले स्वजन अनुवर्तन करते हैं. सोते समय ये सभी शक्तियां आत्मा में लीन हो जाती हैं और उसके जागने पर अग्नि में से निकलने वाली चिनगारियों के समान ये समस्त शक्तियां निकल कर अपने-अपने काम में लग जाती हैं. सनत्कुमार की कथा' – एक समय नारद महात्मा ने सनत्कुमार के पास जाकर कहा - 'हे भगवन् ! मुझे ब्रह्मविद्या पढ़ाइये.' सनत्कुमार ने उसको कहा – 'पहले जो कुछ तू जानता है, मेरे समीप बैठकर मुझे सुनादे. उसके बाद मैं तुझे बताऊंगा.' नारद ने कहा- 'भगवन् ! मैं ऋग्वेद को जानता हूं, यजुर्वेद को, सामवेद को,' चौथे अथर्ववेद को पांचवें इतिहास-पुराण को वेदों के वेद व्याकरण को पितृविज्ञान को, गणित शास्त्र को भाग्यविज्ञान को, निविज्ञान को तर्कशास्त्र को, नीतिशास्त्र को देवविद्या को भक्तिधारको भूतविद्या को धनुविद्या को ज्योतिष, सर्पविद्या, संगीत, नृत्यविद्या को जानता हूं. हे भगवन् ! इन समस्त विद्याओं से सम्पन्न मैं मन्त्रवित् ही हूं परन्तु आत्मा का ज्ञाता नहीं हूं. मैंने आप जैसे महापुरुषों से सुना है कि जो आत्मवित् होता है वह जन्म-मरण के शोक को तर जाता है, परन्तु भगवन् ! मैं अभी तक शोक में डूबा हुआ हूँ. मुझे शोक से पार कर देवें.' सनत्कुमार ने नारद से कहा- 'तुमने आजतक जो कुछ अध्ययन किया है वह नाम मात्र ही है. इसके उपरान्त सनत्कुमार ने आत्मविद्या देकर नारद को सन्तुष्ट किया. वैवस्वत यम और नचिकेता की गाथा -कठ उपनिषत् में औदानिक आणि गौतम के पुत्र नचिकेता ऋषि की एक कथा दी हुई है. एक बार नचिकेता, जो जन्म से ही बड़ा त्यागी और विचारशील था, अपने पिता के संकुचित व्यवहार से रूठ कर भाग गया. वह शान्तिलाभ के लिये वैवस्वत यम के घर पहुंचा, पर उस समय वैवस्वत बाहर गया हुआ था. उसके बाहर जाने के कारण नचिकेता को तीन रात भूखा रहना पड़ा. वापिस आने पर घर में भूखे अतिथि को देखकर यम को बड़ा खेद हुआ. अपने दोष की निवृत्ति यम ने नचिकेता को तीन रात के कष्ट के बदले तीन वर मांगने के लिये कहा. नचिकेता के माँगे हुये पहले दो वर यम ने उसे तुरन्त ही दिये. फिर नचिकेता ने तीसरा वर इस प्रकार मांगा'यह जो मरने के बाद मनुष्य के विषय में सन्देह है— कोई कहते हैं कि रहता है, कोई कोई कहते हैं कि नहीं रहता, यह आप मुझे समझादें कि असल बात क्या है ? यही मेरा तीसरा वर है. इस वर को सुनकर यम बोला- ' इस विषय में तो पुराने देवजन अर्थात् विप्रजन भी सन्देह करते रहे हैं. इसका जानना १. छांदोग्य उपनिषद्, सातवां प्रपाठक पहला खएड. Jain E Ras ina -- wbrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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