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________________ दरबारीलाल जैन : जैनदर्शन में संलेखना का महत्त्वपूर्ण स्थान : ४६५ ही रहती है.' इनके तो जल-निखात या भू-निखात के उल्लेख मिलते है.२ यह भी ध्यान देने योग्य है कि हिंदू धर्म में अन्त्येष्टि की सम्पूर्ण क्रियाओं में मृत-व्यक्ति के विषय-भोग तथा सुख-सुविधाओं के लिये प्रार्थनाएं की जाती हैं. हमें उसके आध्यात्मिक लाभ अथवा मोक्ष के लिए इच्छा का बहुत कम संकेत मिलता है. जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाने के लिये प्रार्थना बहुत कम है. जब कि जैन सल्लेखना में पूर्णतया आध्यात्मिक लाभ तथा मोक्ष की भावना निहित है लौकिक एषणाओं की उसमें कामना नहीं है. एक बात यहाँ ज्ञातव्य है कि निर्णयसिंधुकार ने ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ के अतिरिक्त आतुर अर्थात् मुमूर्षु (मरणाभिलाषी) और दुःखित अर्थात् चौर व्याघ्रादि से भयभीत व्यक्ति के लिये भी संन्यास का विधान करने वाले कतिपय मतों को दिया है. इनमें बतलाया गया है कि संन्यास लेने वाला आतुर अथवा दुःखित यह संकल्प करता है कि "मैंने जो अज्ञान प्रमाद या आलस्य दोष से बुरा कर्म किया उन सब का मैं त्याग करता हूँ और सब जीवों के लिये अभयदान देता हूँ तथा विहार करते हुए किसी जीव की हिंसा नहीं करूंगा." पर यह सब कथन संन्यासी के मरणान्त समय के विधि-विधान को नहीं बतलाता, केवल संन्यास लेते समय की जाने वाली चर्या का दिग्यदर्शन कराता है. स्पष्ट है कि यहाँ संन्यास का वह अर्थ विवक्षित नहीं है जो सल्लेखना का अर्थ है. संन्यास का अर्थ है यहाँ साधु-दीक्षा, किंवा, कर्मत्याग या संन्यास नामक चतुर्थ आश्रम का स्वीकार है और सल्लेखना का अर्थ संन्यास के अन्तर्गत मरण समय में होने वाली क्रिया विशेष (कषाय एवं काय का कृषीकरण करते हुए आत्मा को कुमरण से बचाना तथा आचरित धर्म की रक्षा करना) है. अतः सल्लेखना जैनदर्शन की एक अनुपम देन है, जो पारलौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन को उज्जवल बनाती है. इस क्रिया में रागादि कषाय से युक्त होकर प्रवृत्ति न होने के कारण सल्लेखना धारी को आत्मबध का भी दोष नहीं लगता. १. डा० राजबली पाण्डेय, हिन्दू संस्कार पृ० ३०३. २. डा० राजवली पाण्डेय, हिन्दू संस्कार पृ० ३०३ तथा कमलाकर भट्ट, निर्णयसिंधु पृ० ४४७. ३. डा० राजवली प्राण्डेय, हिंदू संस्कार, पृष्ठ ३४६. ४. संन्यसेद् ब्रह्मचर्याद्वा संन्येसच्च गृहादपि । बनाद्वा प्रव्रजेद्विद्वानातुरी वा थ दुःखितः । उत्पन्ने संकटे घोरे चौर-च्याघ्रादि गोचरे। भयभीतस्य संन्यासमं गिरा मनुरब्रवीत् । यत्किंचि द्वाधकं कर्म कृमाज्ञानतो मया । प्रमादालस्यदोषाय तत्तंसंत्यक्त वानहम् । एवं संत्यज्य भूतेव्य दद्याद भय दक्षिणाम् । पन्दयां कराभ्यां विहरन्नाहं वाक्यायमानसः। करिष्ये प्राणिनां हिंसा प्राणिनः सन्तु निर्भया:-कमलाकरभट्ट, निर्णयसिंधु पृ० ४४५. ५. वैदकि साहित्य में यह क्रिया विशेष भृगुपतन, अग्नि प्रवेश आदि के रूप में स्वीकृत है. (शिशुपाल वध ४.२३ की टीका क्विंद जैनसंस्कृत में इसे लोक मूढता कहा है. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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