SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -0-0-0--0-0--0 ४५६ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय पड़ता. पर शरीरान्त रूप जो तद्भवमरण है उसका कषायों एवं विषय-वासनाओं की न्यूनाधिकता के अनुसार आत्मपरिणामों पर अच्छा या बुरा प्रभाव अवश्य पड़ता है. इस तद्भवमरण को सुधारने और अच्छा बनाने के लिये ही सल्लेखना ली जाती है. सल्लेखना से अनन्त संसार की कारणभूत कषायों का आवेग उपशान्त अथवा क्षीण हो जाता है तथा जन्ममरण का चक्र बहुत ही कम जो जाता है. जैन लेखक आचार्य शिवार्य सल्लेखना धारण पर बल देते हुए कहते हैं कि ' "जो जीव एक ही पर्याय में समाधिपूर्वक मरण करता है वह सात आठ पर्याय से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता." उन्होंने सल्लेखना - धारक का महत्त्व बताते हुए यहां तक लिखा है कि जो व्यक्ति अत्यन्त भक्ति के साथ सल्लेखनाधारक (क्षपक) के दर्शन-वन्दन सेवादि के लिये उनके निकट जाता है वह व्यक्ति भी देवगति के सुखों को भोग कर अन्त में उत्तम स्थान (निर्वाण ) को प्राप्त करता है." तेरहवीं शताब्दी के प्रौढ़ लेखक पंडित आशाधरजी ने भी इसी बात को बड़े ही प्राञ्जल शब्दों में स्पष्ट करते हुए कहा है कि स्वस्थ शरीर, पथ्य आहार और विहार द्वारा पोषण करने योग्य है और रुग्ण शरीर योग्य औषधों द्वारा उपचार के योग्य है. परन्तु योग्य आहार-विहार और औषधोपचार करते हुए भी शरीर पर उनका अनुकूल असर न हो, प्रत्युत व्याधि बढ़ती जाय तो ऐसी स्थिति में उस शरीर को दुष्ट की तरह छोड़ देना ही श्रेयकर है. 3 वे असाव धानी एवं आत्मघात के दोष से बचने के लिये कुछ ऐसी बातों की ओर भी संकेत करते हैं, जिनके द्वारा शीघ्र और अवश्यमरण की सूचना मिल जाती है और उस हालत में व्रती को सल्लेखना में लीन हो जाना ही सर्वोत्तम है. ४ इसी प्रकार एक दूसरे विद्वान् ने भी प्रतिपादन किया है कि "जिस शरीर का बल प्रतिदिन क्षीण हो रहा है, भोजन उत्तरोत्तर घट रहा है और रोगादिक के प्रतीकार करने की शक्ति नष्ट हो गयी है वह शरीर ही विवेकी पुरुषों को बतलाता है कि उन्हें क्या करना चाहिए. अर्थात् यथाख्यातचारित्र रूप सल्लेखना धारण कर लेना चाहिए. ५ मृत्युमहोत्सव - कार तो यहां तक कहते हैं कि समस्त श्रुताभ्यास. तपश्चर्या और व्रताचरण की सार्थकता तभी है जब मुमुसु धावक अथवा साधु विवेक जागृत हो जाने पर सल्लेखनामरण, समाधिमरण, पण्डितमरण या वीरमरण पूर्वक शरीर त्याग करता है. वे लिखते हैं : "जो फल बड़े-बड़े व्रती पुरुषों को कायक्लेश आदि तप, अहिंसादि व्रत धारण करने पर प्राप्त होता है, वह फल अन्त समय में सावधानीपूर्वक किये गए समाधिमरण से जीवों को सहज में ही प्राप्त हो जाता है. अर्थात् जो आत्मविशुद्धि अनेक प्रकार के तपादि से होती है वह अन्त समय में समाधिपूर्वक शरीर त्यागने पर प्राप्त हो जाती है. 'बहुत काल तक किये गए उग्र तपों का, पाले हुए व्रतों का और निरन्तर अभ्यास किये हुए शास्त्रज्ञान का एकमात्र फल १. "एगमि भवग्गह समाधिमरणेण जो मदो जीवो । हुसो हिंदि बहुसो सत्तट्ठ भवे पमोत्तूण । —शिवार्य, भगवती आराधना. २. सल्लेहयाए मूल जो वच्चर तिब्ब-भत्ति-राएणं । भोत्ता य देव-सुखं सो पावदि उत्तमं ठाणं । - शिवार्य, भगवती आराधना. ३. कायः स्वस्थोऽनुवर्त्यः स्यात्प्रतिकार्यश्च रोगितः । उपकारं विपर्ययंस्त्याज्यः सद्भिः खलो यथा । ४. देहादिवैकृतेः सम्यक् निमित्तैस्तु सुनिश्चते । Jain Education international - आशाधर, सागारधर्मामृत--६. मृत्य वाराधनामग्नम तेदूरे न तत्पदम् । आशाधर, सा० ६० ८-१०. ५. प्रतिदिवसं विजद्वलमुज्झ भुक्ति त्यजत्प्रतीकारम् । वपुरेव नृणां निगदति चरमचरित्रोदयं समयम् । लेखक - आदर्श सल्लेखना पृष्ठ १६ ( उधृत ) ६. यत्फलं प्राप्यते सद्भित्र तायासविडम्बनात् । तत्फलं सुखसाध्यं स्यान्मृत्युकाले समाधिना । - शान्तिसोपान, मृत्युमहोत्सव, श्लो० २१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy