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________________ जुगलकिशोर मुख्तार : सकमि धर्मसाधन ४५१ इन गाथाओं में बतलाया गया है कि 'पुण्य कर्म का हेतु स्वच्छ (शुभ) परिणाम है और पाप कर्म का हेतु अस्वच्छ ( अशुभ या अशुद्ध ) परिणाम. मंदकषायरूप परिणामों को 'स्वच्छ परिणाम' और तीव्र कषाय रूप परिणामों को 'अस्वच्छ परिणाम' कहते हैं. जो जीव प्रति तीव्र कषायपरिणाम से परिणत होता है, वह पापी होता है और जो उपशम भाव से कषाय की मंदता से युक्त रहता है वह पुण्यात्मा कहलाता है. जो जीव कषाय भाव से युक्त हुआ विषय-सौख्य की तृष्णा से - इन्द्रिय विषय को अधिकाधिक रूप में प्राप्त करने की इच्छा से पुण्य करना चाहता है—पुण्यक्रियाओं के करने में प्रवृत्त होता है-उससे विशुद्धि बहुत दूर रहती है और पुण्य कर्म विशुद्धि-मूलक-वित्त की बुद्धि पर आधार रखने वाले होते हैं अतः उनके द्वारा पुण्य का संपादन नहीं हो सकता - वे अपनी उन धर्मके नाम से अभिहित होनेवाली क्रियाओं को करके पुण्य पैदा नहीं कर सकते. चूंकि पुण्यफलकी इच्छा रखकर धर्म क्रियाओं के करने से सकाम-धर्मसाधन से पुण्य की संप्राप्ति नहीं होती, बल्कि निष्काम रूपसे धर्म साधन करने वाले को ही पुण्य की संप्राप्ति होती है, ऐसा जान कर पुण्य में भी आसक्ति नहीं रखना चाहिए. वास्तव में जो जीव मन्दकषाय से परिणत होता है वही पुण्य बांधता है. इसलिए मंदकषाय ही पुण्य का हेतु है, विषयवांछा पुण्य का हेतु नहीं—विषयवांछा अथवा विषयाशक्ति तीव्र कषाय का लक्षण है और उसका करने वाला पुण्य से हाथ धो बैठता है. Jain a इन वाक्यों से स्पष्ट है कि जो मनुष्य धर्म-साधना के द्वारा अपने विषयकषायों की पुष्टि एवं पूर्ति चाहता है, उसकी कषाय मन्द नहीं होती और न वह धर्म के मार्ग पर ही स्थिर होता है. इसलिए उसके द्वारा वीतराग भगवान् की पूजाभक्ति-उ -उपासना तथा स्तुतिपाठ, जप-ध्यान, सामायिक, स्वाध्याय, तप, दान और व्रत-उपवासादिरूप से जो भी धार्मिक क्रियाएँ बनती हैं—वे सब उसके आत्मकल्याण के लिये नहीं होती उन्हें एक प्रकार की सांसारिक दुकानदारी ही समझना चाहिए. ऐसे लोग धार्मिक क्रियाएं करके भी पाप उपार्जन करते हैं और सुख के स्थान में उलटा दुख को निमंत्रण देते हैं. ऐसे लोगों की इस परिणति को श्रीशुभचद्राचार्य ने ज्ञानार्णव ग्रंथ के २५ वें प्रकरण में, निदान जनित आर्त्तध्यान लिखा है और उसे घोर दुःखों का कारण बतलाया है. यथा : पुरुषानुष्ठानजातैरभिपति पदं परिजनेन्द्रामराणां या तैरेव वात्यमित्यन्तोपत् पूजा-सत्कार - लाभ-प्रभृतिकमथवा याचते यद्विकल्पैः स्यादातं तन्निदानप्रभवमिह नृणां दुःखदावोऽग्रधामं । as " अर्थात – अनेक प्रकार के पुण्यानुष्ठानों को धर्म कृत्यों को — करके जो मनुष्य तीर्थंकर पद तथा दूसरे देवों के किसी पद की इच्छा करता है अथवा कुपित हुआ उन्हीं पुण्याचरणों के द्वारा शत्रुकुल रूपी वृक्षों के उच्छेद की वांछा करता है, अथवा अनेक विकल्पों के साथ उन धर्मकृत्यों को करके अपनी लौकिक पूजा-प्रतिष्ठा अथवा लाभादिक की याचना करता है, उसकी यह सब सकाम प्रवृत्ति 'निदानज' नामका आर्त्तध्यान है. ऐसा आर्त्तध्यान मनुष्य के लिये दुःख-दावानल का अग्रस्थान होता है. उससे महादुःखों की परम्परा चलती है. वास्तव में आर्त्तध्यान का जन्म ही संक्लेश-परिणामों से होता है, जो पापबंध के कारण हैं. ज्ञानार्णव के उक्त प्रकरणान्तर्गत निम्न श्लोक में भी आर्तव्यान को कृष्ण - नील- कापोत ऐसी तीन अशुभ लेश्याओं के बल पर ही प्रकट होना लिखा है और साथ ही यह सूचित किया है कि आर्त्तध्यान पाप रूपीदावानल को प्रज्वलित करने के लिये ईंधन के समान है : कृष्णनीलाद्यसल्लेश्याबलेन प्रविजृम्भते, इदं दुरितदावार्चिःप्रसूतेरिन्धनोपमम् । ४० । इससे स्पष्ट है कि लौकिक फलों की इच्छा रखकर धर्म साधन करना धर्माचरण को दूषित और निष्फल नहीं बनाता, इस विषय में बहुत ही सावधानी रखने की जरूरत है. जिसका वर्णन करते हुए श्रीअमितगति आचार्य उपा बल्कि उलटा पापबंध का भी कारण होता है, और इसलिए हमें सम्यक्त्व के आठ अंगों में निःकांक्षित नाम का भी एक अंग है, सकाचार के तीसरे परिच्छेद में स्पष्ट लिखते हैं : itica saat www.brary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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