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________________ डा० भुवनेश्वरनाथ मिश्र, माधव एम०ए०, पी-एच० डी०, निदेशक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना धर्म का वास्तविक स्वरूप धर्म के तत्त्व के सम्बन्ध में विभिन्न मत पंथ सम्प्रदायों में नाना प्रकार के वितंडावाद आज भी प्रचलित हैं और शायद सदा प्रचलित रहेंगे. इसमें मुख्य हेतु कदाचित् यही है कि प्रत्येक मत-पंथ या सम्प्रदाय के व्यक्ति अपने-अपने मत पंथ या सम्प्रदाय के संकीर्ण दायरे से बाहर की बातें सोच समझ नहीं पाते या सोचना समझना नहीं चाहते. इसीलिए धर्म के क्षेत्र में प्रायः कूपमंडूकता का ही बोल-बाला है और इसीलिए धर्म के नाम पर संसार में इतना अधर्म हो रहा है. और इतिहास साक्षी है कि धर्म के नाम पर क्या-क्या अनाचार और रक्तपात नहीं हुए. अस्तु, आश्चर्य नहीं कि आज के प्रगतिशील व्यक्ति, धर्म का नाम सुन-सुन कर नाक भौंह सिकड़ने लगते हैं और इसे अफीम की संज्ञा दे बैठते हैं. उनकी दृष्टि में धर्म एक नशा है जिसका सेवन करने वाले धर्माध हो कर सब कुकर्म करने पर उतारु हो जाते हैं और जीवन के सामान्य शिष्टाचार के नियमों से भी आँखें बन्द कर लेते हैं. धर्म शब्द का यथार्थ पर्यायवाची शब्द न अंग्रेजी भाषा में है, न विश्व की किसी भी अन्य भाषा में है. धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है, जिसका अर्थ है धारण करना, पोषण करना. वैशेषिक दर्शन के अनुसार धर्म की परिभाषा है. 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस्-सिद्धिः सधर्म:' अर्थात् जिससे लौकिक अभ्युदय और पारलौकिक निःश्रेयस् (कल्याण अथवा मोक्ष) की सिद्धि हो वही धर्म है. महषि जैमिनी धर्म की परिभाषा एक व्यापक परिवेश में करते हैं—“चोदनालक्षणो धर्मः" अर्थात् श्रुतिस्मृति द्वारा बोधित अर्थ ही धर्म है. सच तो यह है कि श्रुति स्मृति ही धर्म का प्राण है और उनके वचन ही धर्ममार्ग में अग्रसर होने की प्रेरणा देते रहते हैं : श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो, धर्म-शास्त्र तु वै स्मृतिः , ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां हि धर्मो निर्वभौ। परन्तु श्रुतियां भी अनेक हैं और स्मृतियां भी अनेक हैं. और उनमें मतैक्य नहीं. वे भिन्न-भिन्न मतों का प्रतिपादन करती हैं, ऐसी अवस्था में विचारक या धर्मसाधक क्या करें ? ऐसी अवस्था में 'महाजनो ये न गतः स पंथा' जिस मार्ग से महापुरुष चलते हों वही निष्कंटक है. यहां महापुरुष का अर्थ है श्रेष्ठजन, आदर्श, धर्मप्राण व्यक्ति, जिसने अपने लोक-परलोक को संवार लिया है. जो मुक्त है या मोक्षार्थी है, न कि लौकिक पद मर्यादा या मान-प्रतिष्ठा के कारण महान् बन बैठा है. ऐसे ही महापुरुष सूत्र बतला गये हैं जिनका पथदर्शन मानवता को कल्याणपथ पर अग्रसर करता रहेगा. वे कहते हैं : श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् , श्रात्मनः प्रतिकूलानि न परेषां समाचरेत् । विद्वद्भिः सेवितः समिनित्यं अवघरागिभिः , हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत । श्लोकार्धन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः , परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् । अर्थात् धर्म का यह रहस्य सुनो और सुनकर हृदय में धारण करो जिसे अपने लिए बुरा समझते हो उसे दूसरों के Jain Elu Lintematinnal aatai-Records-only merjanmeniorary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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