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________________ Jain Ed : चैनल जैन जैनधर्म में भक्तियोग ४१३ जो भगवान् के भक्त हैं, जो दीन-हीनों के सहायक हैं, जो यतियों में श्रेष्ठ हैं, जो तपोधन हैं उन सबको तथा देश, राष्ट्र, नगर और राजा को भगवान् जिनेन्द्र शान्ति प्रदान करें. ये सब उल्लेख स्पष्ट यह बतलाते हैं कि जैनों के वाङ्मय का लक्ष्य आत्मशोधन के साथ-साथ लोकोपकार की भावना भी है. उसका दृष्टिकोण संकुचित नहीं अपितु उदार, विशाल एवं व्यापक है. इसमें वसुधैव कुटुम्बकम् की 'उदात्त' तथा प्रांजल भावना ओतप्रोत है. इससे मानव को जो प्रेरणा मिलती है उससे उसकी पशुता निकल कर मानवता निखर जाती है. जैन-भक्ति की एक विशेषता यह भी है कि इसमें किसी प्रकार के आडम्बर को स्थान नहीं मिलता. आडम्बर भक्ति की विडम्बना है. उससे कभी आत्मा का यथार्थ दर्शन नहीं होता. उपास्य का जो वास्तविक स्वरूप है उसीकी उपासना पर जैनभक्ति में बल दिया गया है. भक्त भी उसी स्वरूप की प्राप्ति के लिये कृतसंकल्प होता है. जैन मंदिरों में वीतरागता के साधनों के अतिरिक्त जो बाह्य चीजें दीख पड़ती हैं, वे चाहे कितनी ही आकर्षक क्यों न हों, भक्ति में उनका कोई महत्व नहीं. जहाँ भक्ति के उच्च स्तर का वर्णन मिलता है वहाँ सोने-चाँदी आदि अत्यन्त बाह्य पदार्थों की कौन कहे, शरीराश्रित गुणों को भी कोई महत्त्व नहीं दिया गया. वहाँ तो आत्माश्रित गुणों को ही भक्ति कर आधार माना गया है क्योंकि उन्हीं की अभिव्यक्ति जीवन में अपेक्षित है. शरीर और इससे सम्बन्ध रखने वाले सभी बाह्य पदार्थ जड़ हैं. जड़ के किसी भी गुण-धर्म की अभिव्यक्ति आत्मा को इष्ट नहीं है. मूर्तिपूजा और भक्ति श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी एवं दिगम्बर जैनों का तारणपंथी सम्प्रदाय - यद्यपि मूर्तिपूजा को महत्त्व नहीं देते, फिर भी वे भक्ति का समर्थन करते हैं. यद्यपि मूर्तिपूजा और भक्ति का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध हैं तो ये दोनों चीजें एक नहीं हैं. किन्हीं दो पदार्थों में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बनाना व्यक्तिगत प्रश्न है. भक्ति के लिये भी कोई मूर्ति को अवलम्बन मानता है और कोई नहीं मानता है. जो संप्रदाय मूर्ति या प्रतिमा को अवलम्बन नहीं मानते, वे भी भगवान् की भक्ति करते हैं. भक्ति तो मनुष्य की मानसिक वृत्ति है. वह मूर्तिरूप आलंबन के विना निरालंबन भी हो सकती है. वास्तव में परमात्मा या भगवान् ही आलंबन हैं. उपास्य में तो कोइ भेद है नहीं, भले ही उनकी मूर्ति बनाई जाय या न बनाई जाय. विना मूर्ति के भी परमात्मा या महात्माओं के गुणों में अनुराग उत्पन्न कर उसमें पूजनीयता की आस्था स्थापित की जा सकती है. भक्ति का रहस्य भी यही है. इन तीनों संप्रदायों ने जो मूर्ति का विरोध किया है इसके ऐतिहासिक कारण हैं. इससे किसी में किसी की स्थापना करने की मानव-बुद्धि का विरोध नहीं होता. मूर्तिपूजा का विरोध करना उन तीनों सम्प्रदायों का क्रान्तिकारी कदम था किन्तु वह भक्ति का विरोध कभी नहीं था. जैनधर्म में जो भक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है उसे जैनों के सभी सम्प्रदाय एक मत से स्वीकार करते हैं. भक्ति साहित्य जैन वाङ्मय में भक्तिसाहित्य अथवा स्तोत्रग्रन्थों का उल्लेखनीय स्थान है. तीर्थंकरों पंचपरमेष्ठी एवं अन्य देवी-देवताओं सम्बन्धी हजारों स्तोत्रग्रन्थ उपलब्ध होते हैं. भक्तामरस्तोत्र, कल्याणमन्दिरस्तोत्र आदि स्तुतिपरक रचनाएँ बड़ी ही महत्त्वपूर्ण हैं. जैन उपासक प्रतिदिन इन रचनाओं को भक्ति के भाव में विभोर होकर अपनी आत्मशुद्धि के लिये पढ़ते हैं. तुलनात्मक दृष्टि से इन स्तुतिग्रन्थों की अनेक विशेषताएं हैं. इनका प्रत्येक पद्य एक मंत्र माना जाता है और इन पर अनेक कथाएं लिखी गई हैं. जैनों के वैयक्तिक जीवन पर इन स्तोत्रों का बहुत प्रभाव है. यह साहित्य इतना विशाल है। कि इस पर विभिन्न दृष्टियों से अनुसंधान किया जा सकता है. जैनों के चोटी के आचार्यों ने अन्यान्य विषयों की रचना के साथ-साथ भक्तिसाहित्य को भी अपनी रचना का विषय बनाया है. दार्शनिक साहित्यकारों ने भक्ति को तर्क की कसौटी पर कस कर अपने ग्रन्थों में इसकी उपादेयता सिद्ध की है. Pur Private arsonal use only www.jamelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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