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________________ चैनसुखदास जैन : जैनधर्म में भक्तियोग : ४०६ आदर्श मानता है और जिस विधि से स्वयं उपास्य ने गुण प्राप्त किये उसी विधि से उस मार्ग को अपनाकर भक्त भी उपास्य के गुणों को प्राप्त करना चाहता है. यही भक्ति का वास्तविक ध्येय है. इस सम्बन्ध में निम्नांकित प्राचीन उल्लेख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है. मोक्षमार्गस्य नेतारं भत्तारं कर्मभूभृताम् , ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तदगुणलब्धये । अर्थात् मैं मोक्ष मार्ग के नेता, कर्मरूपी पर्वतों के भेत्ता और विश्व तत्त्वों के ज्ञाता को उसके गुणों की प्राप्ति के लिये वंदना करता हूँ. यहाँ किसी खास व्यक्ति को प्रणाम नहीं है अपितु उन गुणों को धारण करने वाले व्यक्ति को प्रणाम है चाहे वह कोई भी क्यों न हो. एक श्वेताम्बराचार्य भी यही कहते हैं भवबीजांकुरजलदाः, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य , ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । भव-बीजांकुर के लिये मेघ के समान, रागादिक संपूर्ण दोष जिसके नष्ट हो गये हैं उसे मेरा प्रणाम है फिर चाहे वह ब्रह्मा हो या विष्णु अथवा महादेव हो या जिन. सुप्रसिद्ध तार्किक आचार्य अकलंकदेव भी गुणोपासना के सम्बन्ध में यही कहते हैं यो विश्वं वेद वेद्य जननजलनिधभंगिनः पारदृश्वा , पौर्वापर्याऽविरुद्ध वचनमनुपमं निष्कलंक यदीयम् । तं वन्दे साधुवंद्य निखिलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विषन्तं , बुद्ध वा वद्ध मानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा । जिसने जानने योग्य सब कुछ जान लिया है, जो जन्म रूपी समुद्र की तरंगों के पार पहुँच गया है, जिसके वचन दोषरहित, अनुपम और पूर्वापर विरोध रहित हैं, जिसने अपने सारे दोषों का विध्वंस कर दिया है और इसीलिए जो संपूर्ण गुणों का भंडार बन गया है तथा इसी हेतु से जो संतों द्वारा वंदनीय है, मैं उसकी वंदना करता हूँ चाहे वह कोई भी हो-बुद्ध हो, वर्द्धमान हो, ब्रह्मा हो, विष्णु हो अथवा महादेव हो.. ये सब उदाहरण हमें यह बतलाते हैं कि भक्ति के स्थान गुण हैं, व्यक्ति नहीं. इसलिए जैनदर्शन भक्ति का आधार गुणों को मानता है. यदि परमात्मा की भक्ति करने से कोई परमात्मा नहीं बन सकता तो फिर उसकी भक्ति का प्रयोजन ही क्या है ? इस सम्बन्ध में भक्ति के प्रधान आचार्य मानतंग ने ठीक ही कहा है : नात्यद्भुतं भुवनभूषण ! भूतनाथ । भूतैर्गुण वि भवन्तमभिष्टुवन्तः , तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा । भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति । हे जगत् के भूषण ! हे जगत् के जीवों के नाथ ! आपके यथार्थ गुणों के द्वारा आपका स्तवन करते हुए भक्त यदि आपके समान हो जाय तो हमें कोई अधिक आश्चर्य नहीं है. ऐसा तो होना ही चाहिए. क्योंकि स्वामी का यह कर्तव्य है कि वह अपने आश्रित भक्त को अपने समान बना ले. अथवा उस मालिक से लाभ ही क्या है जो अपने आश्रित को वैभव से अपने समान नहीं बना लेता. किन्तु यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब परमात्मा रागद्वेष से विहीन है, तब उसकी भक्ति से लाभ ही क्या है ? राग न होने के कारण वह अपने किसी भी भक्त पर अनुग्रह नहीं करेगा और द्वेष न होने से किसी दुष्ट का निग्रह करने के लिये भी कैसे प्रेरित होगा ? क्योंकि अनुग्रह और निग्रह में प्रवृत्ति तो रागद्वेष की प्रेरणा से ही होती है जो शिष्टों पर अनुग्रह और दुष्टों का निग्रह करता है उसमें राग या द्वेष का अस्तित्व जरूर होता है किन्तु जैन इस T Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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