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________________ 1-0-0-0 ४०६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय नहीं पाती, सम्यक् दृष्टि वह है जो वस्तु में रुकती नहीं है. जो रुक सकती है वही दृष्टि वस्तु से विमुख होने की सोच सकती है, यह विज्ञान सिद्ध दृष्टि नहीं कहलायेगी, बल्कि सीधे या उल्टे अर्थ में विमूढ दृष्टि समझी जायेगी. वस्तु और व्यक्ति के बीच समीचीन सम्बन्ध को सिद्ध करने वाला होता है- अपरिग्रह. वस्तु के डर से व्यक्ति को हीन और रहित बनाना उसका इष्ट नहीं है. सामने वह दीन और दरिद्र है, वस्तु के नाम पर उसके आस-पास अभाव ही अभाव है, क्या आप उसको अपरिग्रही कह सकेगें ? नहीं, उसको दीन और दरिद्र इसलिए कहना होता है कि बाहरी अभाव के कारण उसका मन वस्तु के प्रति और भी ग्रस्त और लुब्ध होता है, ऊपर से नितान्त नग्न होते हुये भी वह भीतर से कातर और लोलुप हो सकता है. अपरिग्रह में वस्तु का लोभ व भय भी समाप्त हो जाता है. आत्म चेतना सर्वथा स्वयं निर्भर हो जाती है. उसमें से वस्तु के प्रति एक विभुता और इसलिए निश्चिन्तता प्राप्त होती है, अधीनता और चिन्ता नहीं. दूसरे शब्दों में अपरिग्रह अभावात्मक नहीं, सद्भावात्मक भाव है, अर्थात् अपरिग्रह में वस्तु के प्रति रुष्ट विमुखता नहीं होती, बल्कि प्रसन्न मुक्तता होती है. वस्तु की अपेक्षा में जो अपने को दीन अनुभव करता है वह कभी अपरिग्रही नहीं हो सकता. अपरिग्रही तो वह है जो आत्म सम्पन्नता में भरपूर हो. प्र०—– मनुष्य का कार्य वस्तु के द्वारा सम्पन्न होता है अर्थात् दैनिक कार्य चलाने के लिए वस्तु की आवश्यकता होती है. आवश्यकता है तो प्रयत्न भी करने होंगे. क्या उस प्रयत्न को दीनता कहा जा सकता है ? उ०- हाँ, समग्र दृष्टि यदि वस्तु में घिरी हो और प्रयत्न उसी पर केन्द्रित हो तो दैन्यभाव माना जायेगा. सांस हम अनायास लेते हैं. उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है तब सांस का रोग कहलाता है. प्राणवायु तो बहुं ओर है, लेकिन जब उसे भीतर लेने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है तो मानना चाहिए कि स्वास्थ्य निर्बल है और फेफड़े निरोग नहीं हैं. अन्तश्चैतन्य से युक्त और प्रवृत्त व्यक्ति की आवश्यकताएं अनायास पूर्ण हो जाती हैं, प्रयत्न-हीनता में से पूर्ण नही होती, केवल वह पुरुषार्थं वस्तु-मुखी नहीं होता है, चित्प्रेरित और चिन्मुख होता है. लाख प्रयत्न करने पर भी कोई इतना वस्तु वैभव नहीं पा सकता कि समवसरण की रचना कर सके. वही तीर्थंकर के लिये अनायास प्रस्तुत हो जाता है. यह महिमा प्रयत्न की नहीं है, अपरिग्रह की है. मैं नहीं मानता कि आत्मचैतन्य में से जगत् का लाभ नहीं होता है. उस जगत्-लाभ या अर्थलाभ में यदि कुछ बाधा बनता है तो चीजों पर मुट्ठी को बांधने का लोभ बाधा बनता है, अन्यथा जो सर्वथा अपनी आत्मा को पा लेता है, सारा ही वस्तुजगत् उसका अपना हो जाता है. त्यागने भागने की कहीं जरूरत ही नहीं रह जाती है. प्रश्न- समवसरण के प्रसंग में आपने जो कुछ कहा वह ठीक है. तीर्थंकर को उसके लिये कोई प्रयत्न नहीं करना होता. सुना जाता है कि देवगण ही समवसरण की रचना करते हैं. परन्तु तीर्थंकर के आदेश का उल्लंघन कौन कर सकता है ? तब क्या वे देवताओं को समवसरण की रचना करने से इन्कार नहीं कर सकते थे ? जबकि समवसरण रचने में आडम्बर प्रत्यक्ष ही है. उत्तर - कैवल्य प्राप्त होने से पहले साधक अवस्था में वैसा वर्जनभाव रहा ही होगा. वह आवश्यकता कैवल्य-लाभ के अनंतर यदि निश्शेष हो जाती हो तो विशेष विस्मय की बात नहीं है. प्रश्न यहां यह नहीं है कि क्या तीर्थंकर को समवसरण की रचना से देवताओं को वर्जित नहीं कर देना चाहिये था ? प्रश्न अपरिग्रह का है और इस उदाहरण के उल्लेख से जो मैं व्यक्त करना चाहता हूं वह इतना ही कि अपरिग्रह में से अनायास वस्तु की विभुता का लाभ हो आता है. मुक्तता उस विभुता का ही रूप है, और अपरिग्रह सच्चे अर्थ में कोई अभावात्मक संज्ञा नहीं है. मान लीजिए कि तीर्थंकर समवसरण के निर्माण को अपने लिये अस्वीकार कर देते हैं तो उससे यही तो सिद्ध होता है। वर वर वर वर वर ह Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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