SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय ---------------0-0-0 (५) आत्म-तत्त्व की मौलिकता सभी आत्माएँ समान रूप से अनन्त गुणों की भंडार हैं. एक आत्मा में जितने भी गुण हैं, उतने ही तथा वैसे ही गुण शेष सभी आत्माओं में विद्यमान हैं. ज्ञान, दर्शन, आनन्द, अमरता, सात्विकता आदि सभी गुण प्रत्येक आत्मा के मूल धर्म हैं. इन गुणों को बाह्य पदार्थ से प्रेरित अथवा जनित नहीं समझना चाहिये, अतएव ये वैभाविक नहीं हैं.ये सभी स्वाभाविक हैं. इनमें विकास, अविकास, अर्धविकास, विपरित विकास जैसी नानाविध वैभाविक स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, परन्तु इन गुणों का सर्वथा विनाश नहीं हो सकता है, क्योंकि इन गुणों का और आत्मा का परस्पर में अभिन्न संबंध है. इसे शास्त्रीय-भाषा में तादात्म्यसम्बन्ध कहते हैं. जैसे उष्णता और अग्नि, शीतलता और जल किरण और सूर्य, औषधि और उसकी प्रभाव-शक्ति आदि का परस्पर अभिन्न सम्बन्ध है. वैसा ही उपरोक्त सभी गुणों का आत्मा के साथ सम्बन्ध जानना चाहिए. आत्मा चाहे निगोद, तिर्यंच, नरक आदि अवस्था में रहे, चाहे देवगति या, मनुष्यगति में रहे, अथवा अरिहंत-सिद्ध अवस्था में, इन गुणों का विनाश कभी नहीं होता. इन गुणों की स्थिति सांसारिक अवस्था में अविकसित अथवा अपूर्ण विकसित जैसी होती है, जब कि अरिहंत-सिद्ध अवस्था में ये गुण परिपूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं. संसार-अवस्था में आत्मतत्त्व के मौलिक गुण कर्म से आवृत्त रहते हैं, परिमुक्त अवस्था में, अनावृत्त हो जाते हैं. सिद्धान्त यह है कि स्वरूप स्वरूपी से कदापि पृथक् अथवा भिन्न नहीं हो सकता है. गुण, कर्म, वृत्ति और स्वभाव ये पारिभाषिक शब्द आत्मगत पर्यायों की स्थिति का परिचय कराते हैं, अतः इन पर विचार करने की आवश्यकता है. जैन-दर्शन में आत्मतत्त्व की सर्वोत्तम तथा सर्वोच्च विकास-अवस्था तेरहवें-चौदहवे गुणस्थान की प्राप्ति के समय में कही गई है. आध्यात्मिकभाषा में इस स्थिति को अरिहंत-अवस्था कहते हैं और उस अवस्था में उत्पन्न होने वाली सर्वोच्च सात्विक विशेषताएँ ही स्वाभाविक गुण शब्द से व्यक्त की जाती हैं. इन गुणों में अनन्त ज्ञान, दर्शन, निर्मलता, अक्षयता, अनिर्वचनीय आत्मिक आनंद, सरलता, संतोष, निर्लोभता आदि विशेषाओं का अन्तर्भाव है. ये आत्मिक गुण हैं, इनका और आत्मतत्त्व का परस्पर में तादात्म्य सम्बन्ध है. ये गुण ही आत्मा के धर्म कहलाते हैं. संसार में परिभ्रमण करते समय इन गुणों एवं धर्मों में जो ह्रास अथवा विकास होता है, उसी को वृत्ति कहते हैं. सांसारिक-अवस्था में वृत्ति का स्थान क्रियात्मक रूप से हृदय और मस्तिष्क माना गया है. आत्म-तत्त्व से प्रेरित मानसिक-शक्ति का प्रभाव शरीर पर होता हुआ भी हृदय एवं मस्तिष्क पर विशेष रूप से जानना चाहिये. मन यद्यपि शरीर-व्यापी ही है परन्तु उसका प्रमुख स्थान हृदय और मस्तिष्क है. मन में जो अच्छे अथवा बुरे विचार उत्पन्न होते हैं, तथा जो भली एवं बुरी भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें ही 'वृत्ति' संज्ञा दी गई है. ये वृत्तियाँ मुख्यत: तीन भागों में विभाजित हैं :--(१) सात्विक, (२) राजस और (३) तामस. अच्छी वृत्तियो को या श्रेष्ठ तथा हितावह विचारों को, और उत्तम भावनाओं को सात्विक-वृत्तियाँ' कहते हैं. सर्वोच्च विकास-शील अवस्था में अर्थात् अरिहंत-स्थिति में जो गुण हैं, वे ही संसार-अवस्था में रहते हुए- साधना-काल में, सात्विक-वृत्तियों के नाम से परिलक्षित होते हैं. निष्कर्ष यह है कि संसार-अवस्था में रहते हुए आत्मा के गुण-धर्मों में पर्याय रूप से उत्पन्न होने वाली विशिष्ट गुण-धारा ही वृत्ति है. (६) आत्मतत्त्व का संविकास जब तक अत्मा का दृष्टिकोण बाह्यसुख और पुद्गलों में रहता है अर्थात् जब तक सांसारिकसुख, सांसारिक लालसा, इन्द्रिय-भोग, इन्द्रिय-पोषण ,धनसंग्रह, पद-लालसा और यशोलिप्सा आदि तामस वृत्तियों की ओर आत्मा लगी रहती WOWOWO Jainism Cewalimary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy