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________________ ---------------------- ३६४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय में कमी नहीं होती है. अगर शरीर से भिन्न कोई जीव होता तो मरने पर शरीर का वजन कम होना चाहिये था. उत्तर हवा भरी हुई मशक का जो वजन होता है वही वजन हवा निकालने के बाद भी उसमें रहता है. जब हवा के निकल जाने पर भी मशक के वजन में कमी नहीं आती है तो आत्मा तो अरूपी और हवा से भी अति सूक्ष्म है. उसके निकल जाने पर शरीर के वजन में कमी कैसे आ सकती है ? प्रश्न-आंख ठीक हो तो दिखाई देता है, कान ठीक हो तो सुनाई देता है. दोनों ही में खराबी आजाने पर आत्मा न देख सकती है, न सुन सकती है. इससे क्या यह सिद्ध नहीं होता है कि देखने-सुनने वाला जो है वह इन्द्रिय रूप शरीर ही है. कोई अलग आत्मा नहीं है. उत्तर–स्वप्नावस्था में मनुष्य अपनी इंद्रियों को काम में लिये विना भी देखता है, सूंघता है, खाता है, पीता है. यहां तक कि जिस मनुष्य को मरे कई वर्ष हो गये उसे भी प्रत्यक्ष देखता है. इस प्रकार की बातें निश्चय ही शरीर से भिन्न आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करती हैं. प्रश्न-जीवों की उत्पत्ति भौतिक संमिश्रणों के आधार पर होती है. या तो माता-पिता के रजोवीर्य के मिलने पर या इधर-उधर के परमाणुओं से ही जीवोत्पत्ति हो जाती है. जैसे आटे में जीव पड़ना बालों में जूं पड़ना आदि. अगर ये सब जीव भवांतर से आकर पैदा होते हैं तो भवान्तर के शरीर को छोड़ते ही उनके लिये जैसा शरीर चाहिये वैसे ही शरीर का संयोग अपने आप कैसे बन जाता है ? जैसे किसी जीव को मनुष्य पर्याय में आना है तो उसके मरते ही कहीं अन्यत्र उसी समय पुरुष के और स्त्री के समागम से उत्पन्न शुक्रशोणित का मिश्रण भी तैयार रहना चाहिये, ताकि वह उसमें आ सके. इस प्रकार की तैयारी सदा ही अकस्मात् मिल जाना सम्भव नहीं है. इससे तो यही क्यों न माना जाय कि भौतिक मिश्रणों से ही चैतन्य उत्पन्न हो जाता है. यह नहीं कह सकते कि कोई जीव भवांतर के शरीर से निकलने के बाद, जब तक उनके योग्य शरीर की सामग्री का संयोग न मिले तब तक यों ही भटकता रहता है. क्योंकि विग्रहगति में अधिक से अधिक काल जैन-सिद्धांत में तीन समय मात्र बताया गया है. चौथे समय में तो उसे जहाँ भी जन्म लेना है वहाँ अवश्य पहुँचना ही पड़ता है. यह तीन समय का काल बहुत ही थोड़ा है. जैन शास्त्रों में एक श्वास में ही असंख्यात समय बताये हैं. उत्तर-जैन-शास्त्रों में जीवों का जन्म तीन तरह का माना है—सम्मूर्छन, उपपाद और गर्भ. इनमें से सम्मुर्छन जन्म के लिये तो कोई कठिनाई नहीं है. यह जन्म रजोवीर्य के संयोग से नहीं होता है. यह तो तीन लोक में फैले हुये इधरउधर के पुद्गल पदार्थों से ही हो जाता है अतः अगणित जीवों के इस जन्म के लिए तो हर समय लोक में सामग्री भरी पड़ी है. उपपाद जन्म देव-नारकियों का होता है. इस जन्म के लिए भी माता-पिता के संयोग की जरूरत नहीं है. इस जन्म के लिये तो नियत स्थान बने हुये हैं और वे सदा तैयार मिलते हैं. रहा गर्भजन्म, उसके लिये अगर मातापिता के संयोग की जरूरत रहती है तो वह भी दुर्लभ नहीं है. मैथुन कर्म करने वाले जीवों की लोक में कोई कमी नहीं हैं. यह संयोग भी हर समय मिल ही जाता है. मैथुन के अन्त में ज्यों ही रजोवीर्य का पतन होकर मिश्रण हो, उसी समय भवांतर से जीव आकर उसमें पैदा हो, ऐसा भी कोई नियम नहीं है. किसी के मत से रजोवीर्य के उस मिश्रण में सात दिन पश्चात् तक जीव का आना बताया गया है. इस तरह से जीवों के आवागमन की समस्या भी हल हो जाती है. मी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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