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________________ ३८२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय विस्तार से, शब्द के मूलतः दो भेद होते हैं और दोनों के दो-दो प्रभेद तथा द्वितीय भेद के प्रथम प्रभेद के भी चार प्रभेद होते हैं. हम यहां प्रत्येक का परिचय देंगे. भाषात्मक - इस वर्ग में मानव और पशु-पक्षियों आदि की ध्वनियाँ आती हैं, इसके दो भेद हैं. अक्षरात्मक - ऐसी ध्वनियाँ इस वर्ग में आती हैं जो अक्षरबद्ध की जा सकें लिखी जा सकें. अनक्षारात्मक — इस वर्ग में रोने-चिल्लाने, खांसने - फुसफुसाने आदि की तथा पशु-पक्षियों आदि की ध्वनियाँ आती हैं, इन्हें अक्षरबद्ध नहीं किया जा सकता. भाषात्मक शब्द के इस वर्ग में प्रकृतिजन्य और वाद्ययंत्रों से उत्पन्न होने वाली ध्वनियाँ सम्मिलित हैं. इसके भी दो वर्ग हैं— प्रायोगिक और वस्त्रसिक. वाद्ययंत्रों से उत्पन्न होने वाली ध्वनियाँ प्रायोगिक शब्द हैं और इन्हें चार वर्गों में रखा जाता है. तत वर्ग में वे ध्वनियाँ आती हैं जो चर्म-तनन आदि झिल्लियों के कम्पन से उत्पन्न होती हों. तबला, ढोलक, भेरी आदि से ऐसे ही शब्द उत्पन्न होते हैं. वितत शब्द वीणा आदि तंत्र यत्रों में, तंत्री के कम्पन से उत्पन्न होते हैं. घन शब्द वे हैं जो ताल, घण्टा आदि घन वस्तुओं के अभिघात से उत्पन्न हों. इसी वर्ग में हारमोनियम आदि जिह्वालयंत्रों से उत्पन्न ध्वनियाँ भी आती हैं । सौषिर वर्ग में वे शब्द आते हैं जो बांस, शंख आदि में वायु प्रतर के कम्पन से उत्पन्न हों. वैस्रसिक - मेघगर्जन आदि प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न होनेवाले शब्द वैससिक कहलाते हैं. बन्ध बन्ध की परिभाषा —बन्ध शब्द का अर्थ है बंधना, जुड़ना, मिलना, संयुक्त होना. दो या दो से अधिक परमाणुओं का भी बन्ध हो सकता है. और दो या दो से अधिक स्कन्धों का भी इसी तरह एक या एक से अधिक परमाणुओं का एक या एक से अधिक स्कन्धों के साथ भी बन्ध होता है. मुद्गल परमाणुओं (कार्मण वर्गगाओं) का जीवद्रव्य के साथ भी बन्ध होता है. बन्ध की विशेषताः -- बन्ध की एक विशेषता यह है कि उसका विघटन या खण्डन या अन्त अवश्यम्भावी है, क्योंकि जिसका प्रारम्भ होता है उसका अंत भी अवश्यमेव होता है. 3 एक नियम यह भी है कि जिन परमाणुओं या स्कन्धों या स्कन्ध परमाणुओं या द्रव्यों का परस्पर बन्ध होता है वे परस्पर सम्बद्ध रहकर भी अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखते हैं. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के साथ दूध और पानी की भांति अथवा रासायनिक प्रतिक्रिया से सम्बद्ध होकर भी अपनी पृथक् सत्ता नहीं खो सकता, उसके परमाणु कितने ही रूपान्तरिक हो जावें, फिर भी उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रहता है. १. शब्दो देवा, भाषालक्षण- विपरीतत्वात् । भाषात्मक उभयथा, अक्षरादिकृतेतर विकल्पत्वात् । अभाषात्मको द्वेषा, प्रयोगविस्त्रसानिमित्तत्वात्, तत्र वैत्रसिको बलाहकादिप्रभवः, प्रयोगजश्चतुर्धा, तत वितत घन सौपिरभेदात् । - आचार्य अकलंकदेवः तत्त्वार्थराजवार्त्तिक, अ० ५, सू० २४. - २. चर्मतनननिमित्तः पुष्कर मेरी दुदु रादिभवस्ततः । तंत्रीकृतवणा सुघोष दिसमुदभवो विततः । तालघएटालाल नाद्यभिघातजी घनः । वंशशंखादिनिमित्तः सौषिर: – आचार्य पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धि, अ०५, सू० २४. ३. संयुक्तानां वियोगश्च भविता हि नियोगतः । - श्राचार्यवादीभसिंह सूरि, क्षत्रचूड़ामणि. Jain Education international For Private & Personal Use Only hillar.... ....... www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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