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________________ इन्द्रचन्द्र शास्त्री : जैनदर्शन : ३६५ जीव (Mind) पुद्गल (Matter) धर्म (positive Energy) अधर्म (Negative Energy) आकाश (Space) काल (Time) प्राचार मीमांसा ऊपर बताया गया था कि जैनधर्म में ७ तत्त्व माने गये हैं. उनमें से प्रथम २ अर्थात् जीव और अजीव विश्व के स्वरूप को बताते हैं. शेष ५ का संबंध आचार अर्थात् आध्यात्मिक विकास के साथ है. जैन दर्शन भी मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य मानता है. इसका अर्थ है आत्मा के स्वरूप का पूर्णविकास. प्रत्येक जीव अपने आप में अनंत चतुष्टय रूप है. अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य उसका स्वभाव है. किन्तु यह स्वभाव बाह्य प्रभाव के कारण दबा हुआ है. इस प्रभाव को कर्म कहते हैं. कर्मों का बन्ध जिन कारणों से होता है उन्हें आश्रव कहते हैं. इस बन्ध का रुक जाना संवर है और संचित कर्मों का नाश निर्जरा है. जैन आचार इन ५ तत्वों पर विकसित हुआ है. अब हम इनका विवेचन करेंगे. प्रास्त्रबकर्मबन्ध के कारणों को आस्रव कहते हैं. इसके ५ भेद हैं. (१) मिथ्यात्व-विपरीत श्रद्धा. तात्विक दृष्टि से इसका अर्थ है सत्य को छोड़कर असत्य को पकड़े रहना. इसी प्रकार कुदेव कुगुरु या कुधर्म को मानना भी मिथ्यात्व है. (२) अविरति-पाप कर्मों से निवृत्त न होना. पापाचरण न करने पर भी जब तक साधक उससे अलग रहने की प्रतिज्ञा नहीं करता, जब तक मन में डांवाडोल है तब तक अविरत कहा जाता है. (३) प्रमाद-आलस्य या अकर्मण्यता, जो जीवन में अनुशासन नहीं रहने देती. अंगीकार किए हुए व्रत में किसी प्रकार की भूल-चूक होना भी प्रमाद है. (४) कषाय--क्रोध, मान, माया और लोभ. (५) योग—मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्तियाँ. आस्रव का शब्दार्थ है आने का मार्ग. आत्मा अपने आप में शुद्ध है. इन ५ कारणों से कर्म-परमाणुओं का बन्ध होता है और वह मलीन हो जाता है. कर्म एक प्रकार का जड़ पदार्थ है जो आत्मा के साथ मिलकर उसे मलिन कर देता है. बंध-बन्ध का अर्थ है कर्मों का आत्मा के साथ चिपकना और शुभाशुभ फल देने की शक्ति प्राप्त करना. इसके चार भेद हैं. (१) प्रकृति बंध-आत्मा के साथ जो कर्म-पुद्रल बन्धते हैं वे आठ प्रकार के हैं. उनमें से चार आत्मा के अनंत चतुष्टय को आच्छादित करते हैं. शेष योनि विशेष में जन्म, शारीरिक संगठन, तथा आयु आदि का निर्माण करते हैं. प्रथम प्रकार के कर्म आत्म-गुणों का घात करने के कारण घाति कहे जाते हैं और शेष चार अघाति. घाति कर्म नीचे लिखे अनुसार हैं. (१) ज्ञानावरण-ज्ञान को ढंकने वाला. (२) दर्शनावरण-दर्शन को ढंकने वाला. (३) मोहनीय-आत्मा को विपरीत दशा में ले जाने वाला. वेदान्त तथा योगदर्शन में अविद्या का तथा बौद्धदर्शन में तृष्णा का जो स्थान है वही जैनदर्शन में मोहनीय कर्म का है. (४) अंतराय-आत्मशक्ति को कुंठित करने वाला. ४ अघाति कर्म निम्न प्रकार हैं. (क) वेदनीय-शारीरिक सुख दुःख उत्पन्न करने वाला. (ख) नाम कर्म-उच्च नीच गतियों में ले जाने, शरीर रचना करने एवं अन्य अनुकूल तथा प्रतिकूल सामग्री उपस्थित करने वाला. Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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