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________________ डा. मोहनलाल मेहता : जैनाचार की भूमिका : ३१७ अस्तित्व से अभिन्न हैं. इसी प्रकार, नास्तित्व आदि धर्मों का भी तदितर धर्मों से अभेद करके कथन किया जाता है. यह अभेद काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार आदि आठ दृष्टियों से होता है. जिस समय किसी वस्तु में अस्तित्व धर्म होता है उसी समय अन्य धर्म भी होते हैं. घट में जिस समय अस्तित्व रहता है उसी समय कृष्णत्व, स्थूलत्व आदि धर्म भी रहते हैं. अतः काल की दृष्टि से अस्तित्व व अन्य गुणों में अभेद है. यही बात शेष सात दृष्टियों के विषय में भी समझनी चाहिये. वस्तु के स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्व धर्म का विचार किया जाता है एवं परद्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव से नास्तित्व धर्म का. सकलादेश में एक धर्म में अशेष धर्मों का अभेद करके सकल अर्थात् सम्पूर्ण वस्तु का कथन किया जाता है. विकलादेश में किसी एक धर्म की ही अपेक्षा रहती है और शेष की उपेक्षा. जिस धर्म का कथन करना होता है वही धर्म दृष्टि के सन्मुख रहता है. अन्य धर्मों का निषेध तो नहीं होता किंतु प्रयोजनाभाव के कारण उनके प्रति उपेक्षाभाव अवश्य रहता है. विकल अर्थात् अपूर्ण वस्तु के कथन के कारण इसे विकलादेश कहा जाता है. इस प्रकार अहिंसा और अनेकान्तवाद की मूल भित्ति पर ही जैनाचार के भव्य भवन का निर्माण हुआ है. -0-0-0-0-0--0--0-0-0-0 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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