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________________ 0-0-0-0--0-0--0--0--0-0 डा. मोहनलाल मेहता : जैनाचार की भूमिका : ३१५ आत्मा के स्वाभाविक सुख में बाधा पहुंचाती है. अन्तराय प्रकृति से वीर्य अर्थात् आत्मशक्ति का नाश होता है. वेदनीय कर्मप्रकृति शरीर के अनुकूल एवं प्रतिकूल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख के अनुभव का कारण है. आयु कर्मप्रकृति के कारण नरक, तिर्यच देव एवं मनुष्य भव के काल का निर्धारण होता है. नाम कर्म प्रकृति के कारण नरकादि गति, एकेन्द्रियादि जाति,औदारिकादि शरीर आदि की प्राप्ति होती है. गोत्र कर्मप्रकृति प्राणियों के लौकिक उच्चत्व एवं नीचत्व का कारण है. कर्म की सत्ता मानने पर पुनर्जन्म की सत्ता भी माननी पड़ती है. पुनर्जन्म अथवा परलोक कर्म का फल है. मृत्यु के वाद प्राणी अपने गति नाम कर्म के अनुसार पुनः मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक अथवा देव गति में उत्पन्न होता है. आनुपूर्वी नाम कर्म उसे अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंचा देता है. स्थानान्तरण के समय जीव के साथ दो प्रकार के सूक्ष्म शरीर रहते हैं: तैजस और कार्मण. औदारिकादि स्थूल शरीर का निर्माण अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंचने के बाद प्रारम्भ होता है. इस प्रकार जैन कर्मशास्त्र में पुनर्जन्म की सहज व्यवस्था की गई है. कर्मबन्ध का कारण कषाय अर्थात् राग-द्वेषजन्य प्रवृत्ति है. इससे विपरीत प्रवृत्ति कर्ममुक्ति का कारण बनती है. कर्ममुक्ति के लिए दो प्रकार की क्रियाएँ आवश्यक हैं :-नवीन कर्म के उपार्जन का निरोध एवं पूर्वोपार्जित कर्मका क्षय. प्रथम प्रकार की क्रिया का नाम संवर तथा द्वितीय प्रकार की क्रिया का नाम निर्जरा है. ये दोनों क्रियाएं क्रमशः आस्रव तथा बन्ध से विपरीत हैं. इन दोनों की पूर्णता से आत्मा की जो स्थिति होती है अर्थात् आत्मा जिस अवस्था को प्राप्त होती है उसे मोक्ष कहते हैं. यही कर्ममुक्ति है. नवीन कर्मों के उपार्जन का निरोध अर्थात् संवर निम्न कारणों से होता है:-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र व तपस्या. सम्यक् योगनिग्रह अर्थात् मन, वचन व तन की प्रवृत्ति का सुष्ठु नियन्त्रण गुप्ति है. सम्यक् चलना, बोलना, खाना, लेना-देना आदि समिति कहलाता है. उत्तम प्रकार की क्षमा, मृदुता, ऋजुता, शुद्धता आदि धर्म के अन्तर्गत हैं. अनुप्रेक्षा में अनित्यत्व, अशरणत्व, एकत्व आदि भावनाओं का समावेश होता है. क्षुधा, पिपासा, सर्दी, गर्मी आदि कष्टों को सहन करना परीषहजय है. चारित्र, सामायिक आदि भेद से पांच प्रकार का है. तप बाह्य भी होता है व आभ्यन्तर भी. अनशन आदि बाह्य तप हैं, प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप कहलाता है. तप से संवर के साथसाथ निर्जरा भी होती है. संवर व निर्जरा का पर्यवसान मोक्ष-कर्ममुक्ति में होता है. प्रात्मवाद कर्मवाद का आत्मवाद से साक्षात् सम्बन्ध है. यदि आत्मा की पृथक् सत्ता न मानी जाय तो कर्मवाद की मान्यता निरर्थक सिद्ध होती है. जैन आचारशास्त्र में कर्मवाद के आधारभूत आत्मवाद की भी प्रतिष्ठा की गई है. आत्मा का लक्षण उपयोग है. उपयोग का अर्थ है बोधरूप व्यापार. यह व्यापार चैतन्य का धर्म है. जड़ पदार्थों में उपयोग-क्रिया का अभाव होता है क्योंकि उनमें चैतन्य नहीं होता, उपयोग अर्थात् बोध दो प्रकार का है:-ज्ञान और दर्शन. सुख और वीर्य भी चैतन्य का ही धर्म है. इसीलिए आत्मा को अनन्त-चतुष्टयात्मक माना गया है. अनन्त चतुष्टय ये हैं—अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य. बद्ध अर्थात् संसारी आत्मा में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म के सम्पूर्ण क्षय से क्रमशः विशेष बोधरूप अनन्त ज्ञान, सामान्य बोधरूप अनन्त दर्शन, अलौकिक आनन्दरूप अनन्त सुख व आध्यात्मिक शक्तिरूप अनन्त वीर्य प्रादुर्भूत होता है. मुक्त आत्मा में ये चार अनन्त-अनन्तचतुष्टय सर्वदा बने रहते हैं. संसारी आत्मा स्वदेहपरिमाण एवं पौद्गलिक कर्मों से मुक्त होती है, साथ ही परिणमनशील, कर्ता, भोक्ता एवं सीमित उपयोगयुक्त होती है. अहिंसा और अपरिग्रह जैनाचार का प्राण अहिंसा है, अहिंसक आचार एवं विचार से ही आध्यात्मिक उत्थान होता है जो कर्ममुक्ति का कारण है. अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन एवं आचरण जैन परम्परा में उपलब्ध है उतना शायद ही किसी जैनेतर परम्परा में हो, अहिंसा का मूलाधार आत्मसाम्य है. प्रत्येक आत्मा-चाहे वह पृथ्वी सम्बन्धी हो, चाहे उसका आश्रय जल हो, LADKAN Jal Education mameindiary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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