SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय तीनों नियमों को रत्नत्रयी कहा जाता है. सर्वप्रथम सम्यक्दर्शन एवं सम्यक् निष्ठा को इसीलिए स्थान दिया गया है कि निष्ठा के बिना न तो यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है और न सम्यक् चरित्र का अनुसरण किया जा सकता है. गीता के अनुसार भी यह कहा गया है 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानं, संशयात्मा विनश्यति' अर्थात् निष्ठा वाला व्यक्ति ही यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करता है और सन्देह करने वाला व्यक्ति नाश को प्राप्त होता है. सम्यक् ज्ञान का आदर्श जैनदर्शन में प्रतिपादित उन नवतत्त्वों का ज्ञान है, जिनकी व्याख्या हमने ऊपर दी है. सम्यक्-चारित्र का अर्थ उन सत्यों को जीवन में अवतरित करना है, जिनको कि यथार्थ स्वीकार किया गया है. क्योंकि जैनवाद बन्धन से मुक्ति प्राप्त करने का साधन संवर मानता है, इसलिए इन्हीं महावतों का अनुसरण करना अथवा उन पर आधारित अणुव्रतों को जीवन में अपनाना सम्यक्चरित्र माना जायेगा. हमने ऊपर दिये गए विवेचन में यह देखा कि जैनवाद का आचारशास्त्र अहिंसा को परम धर्म मान कर चलता है और अहिंसा एक निषेधात्मक धारणा प्रतीत होती है. किन्तु जब इस महान् आदर्श को जीवन में अपनाया जाता है तो यह निषेधात्मक आदर्श से कहीं अधिक प्रमाणित होता है. इस आदर्श को निरपेक्ष रूप से जीवन में अपनाना कठिन ही नहीं, अपितु व्यावहारिक दृष्टि से असभव प्रतीत होता है किन्तु अन्तरंग में पूर्ण अहिंसावृत्ति जागृत हो जाने पर अहिंसा के आचरण में भी पूर्णता आजाती है. अतः अहिंसा का मार्ग सरल मार्ग नहीं, अपितु एक तलवार की धार की भाँति कठिन मार्ग है. महात्मा गांधी ने भी अहिंसा की व्याख्या करते हुये अनेक बार कहा है "यह मार्ग निर्बल व भीरु व्यक्ति के लिये नहीं, अपितु वीर और साहसी व्यक्ति के लिये निर्धारित किया गया है." जैनवाद एक ऐसा सिद्धांत है जिसने युगों से अहिंसा के मार्ग को अपनाया है और जो आज तक भी इस उच्च आदर्श को जीवन में अवतरित कर रहा है. अहिंसा का अर्थ न ही केवल किसी व्यक्ति को आघात न पहुँचाना है, अपितु दूसरों की क्रियात्मक सेवा करना भी है. यद्यपि जैनवाद व्यक्तिगत रूप से अहिंसात्मक आदर्शों को जीवन में उतारने पर बल देता है, तथापि यह स्पष्ट है कि उसका उद्देश्य मानवमात्र का कल्याण और सामाजिक प्रगति है. आज विश्व आर्थिक दृष्टि से पूंजीवाद और साम्यवाद की दलबन्दी में ग्रस्त है. पूंजीवाद व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति एकत्रित करने की आज्ञा देकर न ही केवल लोभ के अवगुण को प्रोत्साहन देता है, परन्तु आर्थिक विषमताएं उत्पन्न करने के कारण असंख्य मनुष्यों को भोजन से भी वंचित करता है. पूजीवाद निःसन्देह परोक्ष रूप से हिंसा और शोषण को प्रोत्साहन देता है. साम्यवादी हिंसा का प्रयोग करके बलपूर्वक सम्पत्ति का वितरण करते हैं. और व्यक्ति की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का दमन करते हैं. इस पंजीवाद और साम्यवाद के पारस्परिक संघर्ष का एक मात्र विकल्प आध्यात्मिक साम्यवाद है, जो निःसन्देह जैनवाद द्वारा प्रतिपादित अहिंसात्मक मार्ग की स्वाभाविक उत्पत्ति है. विनोबा भावे ने भारत में भूदान के यज्ञ में जो श्वेत क्रान्ति उत्सन्न की है वह वास्तव में अहिंसा और अपरिग्रह के नियमों पर आधारित है. यहाँ पर यह कहना अनुचित न होगा कि महात्मा गांधी जी ने स्वतन्त्रता-संग्राम में जिस अहिंसात्मक मार्ग को अपनाया और जिसका अनुसरण करके उन्होंने अपने तथा अपने साथियों के उदात्त चरित्र का निर्माण किया, उसकी प्रेरणा उन्हें जैनवाद से अवश्य प्राप्त हुई है. अहिंसा को राजनीति में अपना कर और सत्याग्रह की प्रथा को सर्वप्रिय बनाकर महात्मा गांधी ने यह प्रमाणित कर दिया कि अहिंसा अणुव्रत के रूप में करोड़ों व्यक्तियों द्वारा एक साथ व्यावहारिक जीवन में अवतरित की जा सकती है. इस अहिंसात्मक मार्ग को अपनाना निःसन्देह स्वतन्त्रता संग्राम में अद्वितीय साहस और वीरता का काम था, क्योंकि इस संघर्ष में सत्याग्रही को शस्त्रों का सामना करना पड़ता था-चुपचाप दुख सहन करना पडता था. किन्तु महात्मा गांधी की सफलता ने यह प्रमाणित कर दिया है कि नैतिक शक्ति भौतिक शक्ति से अधिक बलवती है और सत्य पर आधारित अहिंसा की सदैव विजयी होती है. hoto Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy