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________________ मुनि श्रीमल्ल : अाहेत अाराधना का मूलाधार सम्यग्दर्शन : २८७ का सुलक्षण है. लक्ष्य के प्रति क्षण मात्र का प्रमाद स्खलना का कारण होगा.' लक्ष्य भ्रष्ट कभी अपने सदुद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकता. अतएव लक्ष्य के प्रति तन्मयता आवश्यक है. किसान वादलों की तब तक प्रतीक्षा करता रहता है, जब तक कि वे बरस न जाएं. वे न भी बरसें, तब भी वह अपने कृषि-कर्म से पराङ्मुख नहीं होता. उसकी सतत चलने वाली पुरुषार्थमयी प्रवृत्तियों से सम्यक्त्वी साधकों को शिक्षा लेनी चाहिए और अपनी असफलतानों पर विजय प्राप्त करते हुए विचिकित्सा से बचना चाहिए. 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'२ इस सिद्धान्त को जीवन में व्यवहृत करने से विचिकित्सा नहीं पनप सकती. सम्यक्त्वी की साधना भोगप्रधान नहीं होती, इन्द्रिय और विषयों के संयोग से प्राप्त होने वाले सुख परापेक्षी होने से 'पर' कहलाते हैं. इन सुखों की आकांक्षा से किये जाने वाले व्रत' पर-पाखण्ड' हैं. आचार्य हरिभद्र ने पाखण्ड शब्द का अर्थ व्रत किया है. ऐसे प्रत स्वीकार करने वाले 'पर-पाखण्डी' कहलाते हैं. “परपाखण्डी' धर्मविहीन होते हैं. वे इन्द्रियसुखों को ही महत्त्व देते हैं और वहीं तक केन्द्रित रहते हैं. सम्यक्त्वी इन से आगे बढ़ता है. वह आत्मदर्शन चाहता है. इस प्रकार दोनों का साध्य भिन्न होने के कारण सम्यक्त्वी न तो परपाखण्ड रूप व्रतों को स्वीकार करता है और न परपाखण्डी की प्रशंसा या परिचय ही करता है. मनकी वृत्तियां चंचल होने के कारण पतन की ओर शीघ्रता से अग्रसर हो जाती हैं. ऊर्ध्व की ओर उन्मुख करने में आयास करना पड़ता है. किन्तु ऐहिक प्रलोभन ऊर्ध्व की ओर गति नहीं होने देते. यहाँ ऐसे व्यक्तियों का अभाव नहीं है जो स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों की झूठी प्रशंसा कर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं. वे अपने को अधिक चतुर और प्रवीण समझते हैं तथा दूसरे को मूर्ख और बेवकूफ. ऐसे व्यक्तियों को सहयोग देकर आत्मा को पतनोन्मुख बनाना भीषण पाप है. समाज में आज इस प्रकार का एक वर्ग ही बन गया है. राजनीति में तो स्पष्ट ही उसका बोल-बाला है. धर्म भी इसका शिकार हो गया है. अपनी उच्चता की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए भी इसका अधिकाधिक प्रयोग किया जा रहा है. परपाखंडप्रशंसा और परपाखंडसंस्तव क्लीबों का हथियार है. अमोघ मानकर ही वे इसे सगर्व धारण करते हैं. परपाखण्ड प्रशंसा और और परपाखण्ड संस्तव मन को अधोमुख बनाते हैं. सम्यक्त्व-साधना-मार्ग के ये शूल हैं. इनका उच्छेद करके ही आत्मा सम्यक्त्व के साथ एकाकार हो सकती है. देव, गुरु, तथा धर्म के प्रति जो श्रद्धा है, उसे भी सम्यक्त्व कहते हैं. जिन्होंने राग, द्वेष, मोहादि आत्मशत्रुओं को जीत लिया है, वे देव हैं. देव तत्त्व की कल्पना आदर्श के रूप में की जाती है. इस तत्व में किसी प्रकार की साम्प्रदायिकता या संकुचित वृत्ति नहीं है. प्रत्येक आत्मा उत्क्रान्ति करता हुआ परमात्मा बनता है. इसीलिए जैन परम्परा में जिस आत्मा ने अपना पूर्ण विकास कर लिया है उसको देव माना है. ऐसे देव के प्रति आत्म-कल्याण के प्रत्येक अभिलाषी का मस्तक झुक जायगा. गुरु हमारे सामने साधना का मार्ग उपस्थित करता है. साधु स्व-पर-कल्याण के साधक होते हैं. वे महाव्रतों, समितियों तथा गुप्तियों का पालन करते हैं. उन्हें देखकर हम अपनी साधना का व्यावहारिक रूप निश्चित कर सकते हैं. ऐसे साधु के चरणों में किसका मस्तक नत नहीं होगा? तीसरा तत्त्व धर्म है. वह अहिंसा संयम और तप रूप है. इस धर्म को स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती. देव गुरु और धर्म की ऊपर जो व्याख्या की गई है वह सिद्धान्तत: सुन्दर और उदार होते हुए भी उसका उपयोग पंथ तथा सम्प्रदायवाद की पुष्टि में जब किया जाता है तब आत्मगुणों के स्थान पर मिथ्यात्व को ही प्रोत्साहन मिलता है. अन्त: १. समयं गोयम ! मा पमायए. -उत्तराध्ययन. २. गीता ३. पाखण्ड व्रतमित्याहुः. -दशवकालिकटीका. माता wanawe JainEducation Viadalibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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