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________________ २८४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय -6--0--0--0------------- मनु-संहिता में भी इसे परम तत्त्व के रूप में निर्दिष्ट किया है. महर्षि मनु कहते हैं कि सम्यकदर्शन से सम्पन्न व्यक्ति कर्मबद्ध नहीं होता. संसार में परिभ्रमण वही करता है जो सम्यग्दर्शनविहीन होता है.' सम्यक्त्वी का जीवन-व्यापार गुणप्रधान होता है. आत्मा और जगत् के हित की दृष्टि से तर्कसंगत विचार कर जो त्रिया की जाय वही सम्यक्त्वी का आचार है. सम्यक्त्वी का आचार पापप्रधान नहीं होता है.२ "मैं मनुष्य हूँ, जो कुछ मानवीय है, उसे मैं अपने से पृथक् नहीं कर सकता" सम्यक्त्वी में ऐसी अभेददृष्टि होती है. वह जल में रहकर भी कमलवत् निलिप्त रहता है. स्वादु भोजन, मधुर पेय, सुन्दर वसन, अच्छे अलंकार और भव्य भवन भी उसे पथभ्रष्ट नहीं कर सकते. सभी को अपने समान मानना, और समतामय जीवन का विकास करना ही सम्यक्त्वी की पहिचान है. सम्यक्त्वी को पहचानने के पाँच लक्षण हैं—सम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य. समता जीवनव्यवहार का एक मुख्य गुण है. जो पदार्थ, जो प्रवृत्तियाँ और दृष्टि मनुष्य को मनुष्य से पृथक् करती है, वह असमता की द्योतक है. सम्यक्त्वी भाषा, प्रान्त, जाति, धर्म, अर्थ, शास्त्र, ईश्वर, पंथ आदि किसी भी क्षेत्र में आवेश, आग्रह या पक्षपात के वशीभूत होकर असमता को मान्य नहीं कर सकता. जीवननिर्वाह के लिए जो आवश्यक पदार्थ हैं, वे सारे समाज के लिए हैं. उन पर एकाधिपत्य स्थापित कर वैषम्य पैदा करना सम्यक्त्वी का लक्षण नहीं है. जो समभाव बाह्य जीवन को स्पष्ट करता है, वही अन्तर्जीवन में 'समभाव' का रूप धारण कर लेता है. समभाव का अर्थ है उदय में आये हुए क्रोधादि कषायों को असफल करना. क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, घृणा आदि विकार किस में नहीं होते ? इनके परित्याग की बात श्रवण करने में सभी को अच्छी लगती है किन्तु आचरण में लाना अत्यन्त कठिन होता है. सम्यक्त्वी साधक उपशम से क्रोध को, विनय से मान को, सरलता से माया को, संतोष से लोभ को, समभाव से ईर्ष्या को, और प्रेम से घृणा को जीतने का अभ्यास करता है. क्योंकि क्रोध प्रेम का नाश करता है, मान विनय का, माया मित्रता का और लोभ समस्त सद्गुणों का घात करता है.४ क्रोधादि विकार जीवन भर स्थिर रह जाएं अथवा वर्षभर से भी अधिक रह जाएं तो वे आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात कर सकते हैं. अतः इन पर विजय पाना ही सम्यक्त्वी की प्राथमिक साधना है. इसी साधना को प्रशम भी कहते हैं. यह साधना व्यक्ति के लिए शीघ्र ग्राह्य हो सकती है किन्तु समष्टि के लिए कठिन सी प्रतीत होती है. हालांकि व्यक्तियों से ही समष्टि का निर्माण होता है, किन्तु समष्टि में विषमता होती है अतः यह कठिनाई स्पष्ट है. व्यक्तिमूलक या इकाईपरक साधनाओं का समाजीकरण आज आवश्यक होगया है. जब तक इनका समाजीकरण नहीं होगा तब तक समता का स्वराज्य-स्थापन भी एक कल्पना या स्वप्नवत् रहेगा. क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, घृणा के जो मूल कारण हैं उनका उच्छेदन आवश्यक है. इनके उच्छेद पर ही समता के भव्य सामाजिक भवन का निर्माण संभव है. इसके उच्छेद का क्या उपाय है ? इस संबन्ध में यह बताना अपेक्षित है कि वैयक्तिकता का तिरोभाव सामूहिकता में करना होगा. सामाजिक हित को सर्वोपरि महत्त्व देकर व्यक्ति को स्वार्थ, मोह, तृष्णा आदि का विसर्जन करना होगा. १. सम्यग्दर्शनसम्पन्नः, कर्मभिर्न निबध्यते, दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते. -मनुसंहिता. २. सम्मत्तदंसी न करेइ पावं. ३. उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे, मायामज्जवभावेण, लोहो संतोसओ जिणे. -दशबैकालिक ४. कोहो पीई पणासेइ माणो विणयनासणो माया मित्ताणि नासेइ लोहो सयपणासणो. दशवैकालिक ( E JainEducatasaari A Pecasts VAammemantrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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