SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान भारिल्ल : अनन्य और अपराजेय जैनदर्शन : २६३ -0-0-0-0 0 बात कही है. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की चारों अपेक्षाओं, सातों नयों द्वारा की गई तुलना और सप्तभंगी से मिलान करने के पश्चात् ही जैन शास्त्रकारों ने यह विचित्र किन्तु सम्पूर्ण रूप से सत्य बात कही है. उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो सकेगी. (१) कोई दवाई है. वह एक विशेष बीमारी से पीड़ित मनुष्य के लिए उपयोगी है, लेकिन वही दवाई दूसरे पीड़ित मनुष्य के लिए व्यर्थ होती है. यह स्वीकृति तथ्य है. अतः एक ही दवाई उपयोगी भी है और व्यर्थ भी. (२) विष एक ही है. किन्तु वह अलग-अलग स्थितियों में बिलकुल विपरीत कार्य करता है. वह मनुष्य को मार भी देता है और विशेषरूप से, विशेष संयोग में प्रयोग में लिये जाने पर वह मनुष्य को जिलाने का भी कार्य करता है. इस तरह विष, जो एक ही पदार्थ है, विष और अमृत दो पदार्थों का कार्य करता है. अर्थात् उस एक ही पदार्थ में दो सर्वथा विरोधी गुणधर्म उपस्थित रहते हैं. -0-0--0--0--0 जैनदर्शन के अनेकान्तवाद के विरुद्ध अन्य मत स्वीकार करने वालों का सबसे बड़ा विरोध यह है कि जो बस्तु सत् है वही वस्तु असत् कैसे हो सकती है ? जो नित्य है वही अनित्य कैसे हो सकती है ? इसका मुख्य कारण यही है कि उन्होंने एक वस्तु को एक ही पहलू से, एक ही स्वरूप में देखा है, जब कि जैन दार्शनिकों ने वस्तु के पूर्ण स्वरूप को अपनी दृष्टि में रख कर यह बात कही है, किसी एक पहलू अथवा स्वरूप के सम्बन्ध में यह बात उन्होंने नहीं कही है. गम्भीरता से विचार करने पर प्रतीत होगा कि ये जो विरोधी दिखने वाले गुणधर्म हैं वे वस्तुत: अलग-अलग नहीं, एक ही हैं. जो सत् है वही असत् है, दोनों एक दूसरे में मिले हुए हैं, एक के विना दूसरे का अस्तित्व न केवल निरर्थक ही बल्कि असंभव हो जाता है. एक का अस्तित्व दूसरे के कारण-दूसरे के आधार पर ही है. यदि उनमें से एक का नाश हो जाय तो दूसरे का अस्तित्व भी नहीं रह सकता. जगत् में यदि असत्य न होता तो सत्य की क्या आवश्यकता थी ? असत्य है, इसीलिये सत्य भी है. परस्पर विरोधी दिखाई पड़ने वाले ये सत्त्व और असत्त्व आदि धर्म तत्त्व के दो स्वरूप हैं. अनेकान्त दृष्टि से देखे जाने पर ये दोनों भिन्न भी हैं और अभिन्न भी. इसी प्रकार नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि परस्पर विरोधी गुणधर्म होते हुए भी वास्तव में एक ही हैं. प्रकाश और अन्धकार को ही लीजिये. वैसे तो ये भिन्न तत्त्व हैं. इनका कार्य एक दूसरे का विरोधी है. यदि यह कहा जाय कि एक ही वस्तु में प्रकाश और अन्धकार दोनों साथ रहते हैं, तो क्या यह बात स्वीकार की जायेगी ? विचार करने पर मालूम होगा कि यह सत्य है. जब आकाश में प्रकाश था तब अन्धकार कहाँ था ? प्रकाश के आने पर अन्धकार कहाँ गया? क्या अन्धकार के छिपने के लिए अन्य कोई स्थान है ? नहीं. तब फिर यह मानने में आपत्ति क्यों कि ये दोनों तत्त्व एक ही हैं अथवा एक दूसरे में ही समाहित हैं ? अन्धकार जो था वह प्रकाश में ही विलीन हो गया, उसी तरह जो प्रकाश था वह अन्धकार के आगमन पर उसमें ही विलीन हो गया. अत: जो परिवर्तन हमें दिखाई देता है वह सिर्फ अवस्था का है. रात की अपेक्षा से अन्धकार और दिन की अपेक्षा से प्रकाश को हम देखते हैं. अतः जैन दार्शनिकों ने अन्धकार और प्रकाश के मूलभूत पुद्गलों को एक माना है. केवल अवस्थाभेद के कारण ही वे अन्धकार और प्रकाश के रूप में आते हैं. इससे यह स्पष्ट होता है कि परस्पर विरोधी गुणधर्म वाले ये तत्त्व वास्तव में एक ही तत्त्व के अन्तर्गत हैं. यदि हम अनेकान्त दृष्टि से देखें तो हमें इसे समझने में कठिनाई नहीं हो सकती है. बहुत बड़ा आश्चर्य तो हमें तब होता है जब वेदान्त के अनुयायी इस बात का विरोध करते हैं. उनकी मान्यता है कि प्रथम जो था वह शुद्ध विशुद्ध निर्गुण ब्रह्म था. उसमें से माया का सर्जन हुआ. ब्रह्म शुद्ध है, माया अशुद्ध है. ब्रह्म और माया परस्पर विरोधी गुण धर्म वाले तत्त्व हैं. यदि माया की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई तो इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि उत्पत्ति के पूर्व यह माया ब्रह्म में बसी हुई थी. और यदि ऐसा ही है तो उस शुद्ध ब्रह्म के भीतर ही एक अशुद्ध तत्त्व मौजूद था. इस तरह वेदान्त की कल्पना के अनुसार शुद्ध और अशुद्ध-दो परस्पर विरोधी तत्त्व एक साथ ही थे. अपनी MODX JainEdtweariomemational www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy