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________________ २५८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय مممممممممم पहचानता था, जीवन के अर्थ और सार्थकता को अधिक जानता था और अपने अन्तिम और एक मात्र लक्ष्य पर सीधा चलने का प्रयत्न करता था. इस युग में जैनधर्म-जो एक चिरन्तन ज्योति के समान प्राणी-मात्र के पथ को पालोकित करता है के अनुयायी करोड़ों की संख्या में थे. इतिहास उलटने पर ऐतिहासिक तथ्यों और अनुसंधानों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि मौर्य-सम्राट् चन्द्रगुप्त और सम्प्रति महाराजा के शासनकाल में जैनियों की संख्या २० करोड़ से अधिक थी. मि. फरग्युसन (Ferguson) ने लिखा है कि भारत भर में जैन संस्कृति के स्मारक स्थान-स्थान पर बिखरे पड़े हैं. किसी स्थान पर एक चिह्न बना कर यदि हम खोज करें तो चार कोस के घेरे में हमें जैन संस्कृति का कोई न कोई स्मारक अवश्य उपलब्ध होगा. श्रीगंगानाथ बेनर्जी की मान्यता के अनुसार भी ईस्वी पूर्व की सदियों में जैनों की संख्या करोड़ों तक पहुंचती थी. तात्पर्य केवल इतना ही है कि किसी भी धर्म अथवा दर्शन की सत्यता और श्रेष्ठता की परीक्षा करने का यह तरीका नहीं कि उसके अनुयायियों की संख्या की गिनती की जाय. उसकी श्रेष्ठता उसमें प्रतिपादित किये गये उन तत्त्वों में निहित होती है जो मनुष्य को अपने जीवन की उच्च भूमिका पर पहुँचने के लिए प्रेरित करते हैं. जैन दर्शन के उन विश्वप्रसिद्ध सिद्धान्तों का, जिनके अनुसरण और पालनसे आज पग-पग पर आशंका, युद्ध और विनाश से संत्रस्त मानवता सुरक्षित हो सकती है, का विचार हम आगे करेंगे. जैसा कि हमने पहले कहा, मनुष्य-स्वभाव सरलता को पकड़ने की कोशिश करता है और कठिनाई से बचना चाहता है. सत्य का मार्ग इतना सरल ही होता तो फिर कठिनाई शेष क्या रहती ? और यदि गम्भीरता से विचार किया जाए तो कठिनाई जो हमें मालूम पड़ती है वह हमारी कमजोरी में से आई है. हम ज्ञान से अज्ञान की ओर चलें, प्रकाश से अन्धकार की ओर बढ़ें और मार्ग में ठोकरें खाकर रुक जाएँ तो वह हमारी ही नासमझी है, हमारा ही अज्ञान है. आइये, हम अज्ञान से ज्ञान की ओर चलें. अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ें- जैनदर्शन के आलोक-लोक में अपने अंध. कारग्रसित नेत्र खोलें. जैनदर्शन की ज्ञानाञ्जन-शलाका से अपनी 'अज्ञानतिमिरान्ध' आँखें उन्मीलित करें. धर्म और दर्शन धर्म और दर्शन परस्पर इतने संबंधित हैं कि यदि उन्हें एक ही वस्तु मान लिया जाए तब भी अनुचित नहीं होगा. धर्म का सम्बन्ध आचार से है और यह एक स्पष्ट बात है कि आचार और विचार का बहुत ही प्रगाढ संबंध है. अच्छे विचारों के विना अच्छे आचरण की आशा नहीं की जा सकती और अच्छे आचरण के विना अच्छे विचारों का मन में उठना अशक्य है. आचार और विचार परस्पर एक दूसरे को शक्ति देते हुए चलते हैं । यदि कोई मनुष्य निरन्तर अच्छा आचरण रखता है तो उसकी विचारधारा भी धीरे-धीरे शुद्ध होती चलती है और इसी तरह यदि कोई मनुष्य निरन्तर अच्छे विचार रखता है तो उसका आचरण भी, यदि वह शुद्ध नहीं है तो धीरे-धीरे शुद्ध और अच्छा होता जाता है. यहाँ हमें दर्शन की आवश्यकता और उपयोगिता का अनुभव होता है. हमें यह विचार करना आवश्यक है कि अच्छा आचरण किसे कहें ? प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही मनोनुकूल जैसा भी आचरण अच्छा लगे वही 'अच्छा' हो, यह आवश्यक नहीं. ऐसा हो तो मनुष्य अपनी वृत्तियों और इन्द्रियों को अच्छा लगने वाला प्रत्येक आचरण अच्छा समझ कर व्यवहार करने लगे और परिणामतः समाज में एक उच्छृङ्खलता व्याप्त हो जाय. अतः हमें इस परिणाम पर आना ही होगा कि अच्छा वह है जो सत्य हो. और सत्य क्या है इसका निर्णय करने के लिये हमें एक निश्चित और व्यवस्थित दर्शन की आवश्यकता है. अब जो प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है वह यह कि वह कौन-सा दर्शन है जिसका आश्रय लेकर हम सही मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं ? वैसे तो संसार में जितने भी दर्शन हैं, सभी मनुष्य को सुविचार प्रदान करते हैं, किन्तु जैन दार्शनिकों ने इस विश्व को अनेकान्तवाद नाम से जो दर्शन भेंट किया है, उसकी समता कोई अन्य दर्शन नहीं कर सकता. क्योंकि यह दर्शन एक JainEduca Person OSE www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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