SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनि कान्तिसागर : लोंकाशाह की परंपरा और उसका अज्ञात साहित्य : २१५ लोकाशाह किन परिस्थितियों में उठे-उभरे, उन्होंने जन-चेतना के किन निगूढ़ गह्वरों में अपनी क्रान्ति के स्वरों का प्रतिनिधित्व किया ? उसका कहाँ कब कितना और कैसे प्रभाव पड़ा? उसकी परम्परा की दौड़ में अन्य क्या कुछ हुआ है ? इन सब विषयों पर विचार करने का न यह अवसर है, न अपेक्षा ही है. यहाँ तो केवल मुझे अपनी शोधयात्रा में प्राप्त उस सम्प्रदाय के मुनिवरों के ऐतिहासिक गीतों पर ही विचार करना अपेक्षित है. आगामी पंक्तियों में समुपलब्ध गीतों से संबद्ध व्यक्तियों के संबन्ध में प्राप्त साहित्यिक और ऐतिहासिक साधनों के आधार पर जैसा भी परिचय प्राप्त हो सका, दिया जा रहा है. उद्धृत गीत यद्यपि गुरुभक्ति से प्रेरित होकर लिखे गये हैं, जिन्हें प्राचार्य शुक्ल जैसे आलोचक भले ही 'धार्मिक नोटिस' कहकर टाल दें, और इनका लाक्षणिक दृष्टि से साहित्यिक मूल्य न हो परन्तु भाषा-शास्त्र और संस्कृति की दृष्टि से ये बहुत ही उपादेय हैं. उस समय की ऐतिहासिक उलझनों को सुलझाने में पर्याप्त सहायक सिद्ध हुए हैं । उदाहरणार्थ गुजरात के सुलतान महमूद बेघडा के दाहोद के सं० १५४५ वाले लेखान्तर्गत उल्लिखित 'अहम्मदपुर' की भौगोलिक समस्या प्रस्तुत प्रबन्ध में दिये हुए 'जसवंत चातुर्मास' से ही सुलझी है. भले ही ये गीत लघुकाय और प्रशंसात्मक हों पर संबद्ध आचार्य के विषय में कोई न कोई प्रामाणिक नवीन ज्ञातव्य समुपस्थित करते हैं। मैंने अागामी पंक्तियों में अपने आपको गणि तेजसिंह के शिष्य और उनके पट्टधर कानजी तक ही अर्थात् १७ वें पाट तक ही सीमित रखा है, क्योंकि अन्य मुनियों के गीत प्राप्त न थे और पूरी परम्परा पर प्रकाश डालना संभव न था. साहित्य के और विशेषकर राजस्थानी-गुजराती भाषामों के क्षेत्र में स्थानकवासी मुनियों ने जो योग दिया है, सचमुच अभिमान की वस्तु है. इस पवित्र कार्य से जनमानस आश्वस्त हुआ है. कहा जाता है कि अद्यावधि इस दिशा में समुचित मूल्यांकन की ओर कदम नहीं उठाया गया है, पर मेरी विनम्र सम्मत्यनुसार अभी वह समय भी परिपक्व नहीं हुआ है, कारण कि अभी तो अनुसंधान ही कहां हो पाया है ? जब तक लोंकागच्छीय और स्थानकवासी समाज द्वारा संग्रहीत एवं संरक्षित पुरातन ज्ञानागारों का समुचित पर्यवेक्षण न हो जाय, तब तक नव्य दृष्टिकोण की कल्पना असंभव है. ज्ञात से भी अज्ञात अभी बहुत कुछ शेष है. मेरे निजी संग्रह में भी स्थानकवासी समाज के प्रतिष्ठित मुनियों और साध्वियों द्वारा रचित व प्रतिलिपित साहित्य पर्याप्त है. यह मुझे सखेद कहना पड़ता है कि मुनि-समाज ने इस विषय पर आज के शोधप्रधान युग में भी कम ही ध्यान दिया है. मूल ऐतिहासिक गीतों के पूर्व तत्संबंधी मुनियों की परम्परा पर विचार अपेक्षित हैभाणाजी-सिरोही के निकट अरहटवाल-अटकवाड़ा के निवासी, जाति से पोरवाल, सं० १५३१ में स्वयमेव दीक्षा, लोकागच्छ के आदि मुनि. भाणाजी के वैयक्तिक जीवन और उनके विहारप्रदेश आदि के विषय में अधिक ज्ञातव्य तिमिराच्छन्न है. साम्प्रदायिक पट्टावलियां भी इस संबंध में मौन हैं, पर समसामयिक अन्यगच्छीय पट्टावलियों से किंचित् प्रकाश मिलता है. स्व० मोहनलाल दलीचंद देसाई ने इनका दीक्षाकाल सं० १५३१ अहमदाबाद दिया है, पर 'तपागच्छीय पट्टावलियों' में दीक्षा समय सं० १५३३ उल्लिखित है, जैसे'तन्मध्ये वेषधरास्तु वि० त्रयस्त्रिशदधिकपंचदशशत ११३३ वर्षे जाता तन्त्र प्रथमो वेषधारी भाणाख्योऽभूतदिति' —पट्टावली समुच्चय पृष्ठ ६७ उपाध्याय रविवर्द्धन ने अपनी पट्टावली में दीक्षाकाल सं० १५३८ दिया है'तद्वेषधरास्तु सं० १५३८ वर्षे जाताः, तत्र प्रथमो वेषधारी ऋषि भाणाख्यो ऽभूदिति' -पट्टावली समुच्चय पृष्ठ १५७ उपर्युक्त उल्लेख अधिक विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता. सं० १५३३ का समर्थन कुंवरजी पक्षीय केशवजी रचित (सं० १६८८ लगभग) 'लोकाशाह शिलोके' की इन पंक्तियों से होता हैशत पन्नर तेत्रीसनी सालइ, भाणजी ने दीक्खा पालइ । —जैनगूर्जरकविओ भाग ३, पृष्ठ १०६४, Jain Educa
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy