SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रालमशाह खान लोंकागच्छ की साहित्य सेवा : २१३ श्रोतास सिष्या चादरी घरी तस चर्णा सेवा श्री बनेचन्दजी ढाल ए पांचू करी । गज नह ए वसुंधरा बीते सम्त १८७० पोष में सीत द्वादसी, जयपुर जिनपद पूरी सब नें श्रषंड चन्द कला जसी । वस्तो—यह बढ़वाण के श्रावक थे. इन्होंने 'झूठा तपसी का सिलोका' (सं० १८३६ भादों सुदि रविवार ) की रचना की. झूठा तपसी सौराष्ट्र के अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्ति थे. इनके विषय में राणपुर आदि नगरों में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं. समलशाह – इन्होंने तिलोकसुन्दरी डाल (सं० १८९२ फलौदी ) की रचना की. समरचन्द्र -यह कुँवर जी पक्ष के रत्नागर के शिष्य थे. इन्होंने 'श्रेणिक रास' की रचना की. सांवतराम -- यह स्थानकवासी सम्प्रदाय के क्रियाशील मुनि थे. इनकी निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त हैं १. द्रौपदी चौपाई (सं०] १०२२ २. मदनसेन चौपाई (सं० १८ ३. सतीविवरण चौढालिया (सं० कार्तिक कृष्णा ७ जयपुर) फागुन दि ७ बीकानेर) १९०७ चैत्र वदि ७, लश्कर ) सुजाण - यह भीमजी के शिष्य थे. इन्होंने सूरत में रह कर सं० १८३२ में 'शीयल स्वाध्याय' का प्रणयन किया. सुन्दर इन्होंने 'नेमराजुल के नवभव' (सं० १७६१ ) की रचना की. सूजी -- सूजी ने 'श्री पूज्य रत्नसिंह रास' (सं० १६४८ वैशाख वदि १३ तालनगर, मेवाड़ ) की रचना की, यह ऐतिहासिक महत्व की रचना है. आचार्य रत्नसिंह कुंवरजी पक्ष के अर्थात् पाटानुसार ११ में पट्टपर थे. जामनगर निवासी वीसा श्रीमाली वणिक् सोलाणी गोत्रीय सुरा की पत्नी सोहवदे की रत्न कुक्षि से सं० १६३२ में इनका जन्म हुआ था. दीक्षा सं० १६४८ वैशाख वदि १३, अहमदाबाद, पदस्थापन सं० १६५४ जेठ वदि ७ एवं स्वर्गवास सं० १६८६ विदित होता है. स्वराज -सायला निवासी हरखा के पुत्र स्वराज लोकागच्छीय सद्गृहस्थ थे. इन्होंने मूली बाई के बारह मास (सं० १८६२ मिगसर सुदि १३ गुरुवार, सायला ) ५२ पद्यों में रचे. वर्णित मूली बाई दशा श्रीमाली रतनशाह की पत्नी अमृत बाई की पुत्री और कोठारी नानजी की पत्नी थी. इन्होंने आर्या आनंद बाई से प्राथमिक ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत सं० १८६५ में लीमड़ी में रतनबाई से दीक्षा ग्रहण की. इनका जीवन नितांत ही तपश्चर्यापूर्ण था. यह संथारा लेकर सं० १८९० आषाढ़ सुदि १४ शुक्रवार को परमधाम सिधारी. हुलासचन्द - यह नागोरी लोकागन्द्रीय लक्ष्मीचन्द सूरि की परम्परा के शिवचन्द के शिष्य थे. इन्होंने 'राजसिंघ रत्नावली चौपई' (सं० १९४७ माघ सुदि ११ बुधवार ) की रचना की. Jain Education International उपर्युक्त पंक्तियों में इंगित संकेतों का सीमाक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत और व्यापक रहा है. अभी लोंकागच्छ-स्थानकवासी परम्परा के अधीनस्थ प्राचीनतम ज्ञान भण्डारों का वैज्ञानिक सर्वेक्षण होना तो दूर रहा, कहीं-कहीं तो व्यवस्थित सूचीपत्र तक नहीं बन पाये हैं. अतः वर्णित ग्रंथराशि को देखते हुए सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि अन्वेषण करने पर लोकागच्छीय साहित्यकारों की और भी अनेक कृतियाँ उपलब्ध हो सकती हैं. For Private & Personal Use Only 308303083083083083308308 30 30 300 3083023002 30830300308 www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy