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________________ Jain Eee पारसमल प्रसून दीर्घदृष्टि लोकाशाह : १८१ संयोग कि एक बार ज्ञान मुनि लोंकाशाह के घर पर सज्जन की चाह सदा पूरी होती है. जो ढूंढता है उसे मिलता है. गोचरी को गये. उन्होंने उनके मोती जैसे अक्षरों को देखकर सूत्रों की नकल करने का काम सौंपा. ज्ञानजी को क्या पता था कि यह आज का सुलेखक कल का महान् क्रान्तिकारी बन धर्म का सत्य स्वरूप दृढ़ता से प्रतिपादित करेगा. ज्ञान की प्राप्ति गये. शास्त्रों की नकल चलती गई. दो प्रतियाँ बनती थीं. एक मुनिजी को देते. दूसरी अपने पास रखते. स्वाध्याय, चिंतन, मनन, पठन-पाठन से लोकाशाह का ज्ञान बढ़ता गया ज्ञान के प्रकाश में रूढ़िवाद या आडम्बर कैसे टिक सकता है ? ज्यों-ज्यों शास्त्र-ज्ञान बढ़ता गया त्यों-त्यों विलासिता व शिथिलता की पोल खुलती गई. और दशकालिक सूत्र की प्रथम गाथा "धम्मो मंगलमुक्किट्ठ " ने तो उनका पूरा पथ-प्रदर्शन कर दिया. उनके नेत्र खुल शास्त्रों के विशुद्ध ज्ञान से समाज में व्याप्त अंध श्रद्धा से उन्हें ग्लानि हो गई. शुद्ध जैन आगम पर श्रद्धा मजबूत हुई. अब तो उन्हें समाज में दिन-प्रतिदिन बढ़ती शिथिलता स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगी. उन्होंने देखा तो भली भांति ज्ञात हुआ कि मंदिरों, मूर्तियों मठों की प्रतिष्ठा का उल्लेख आगमों में कहीं नहीं है. ........ अब दीर्घदृष्टि लोकाशाह भला कैसे शांत रहते ? सद्ज्ञान का प्रसार उनका लक्ष्य बन गया. प्रथम तो वे पास आनेवालों को ही ज्ञानप्रसाद बाँटते. पर शीघ्र ही उन्होंने समझ लिया कि आज का जमाना विज्ञापन का है. तब वे सार्वजनिक स्थानों पर अपने सत्य विचार निडरता से प्रकट करने लगे. उपदेशवारा अपने सद्ज्ञान का सार विलक्षण मेघावी, दीर्घदृष्टा वीर लौंकाशाह ने इस प्रकार घोषित किया 'शास्त्रों में प्रमाणित अहिंसा, त्याग, संयम से समन्वित सद्धर्म, आज शिथिल सम्प्रदायपोषक हाथों में पड़कर कलुषित बन गया है. मोक्षसाधना के लिये आडम्बरभरी हिंसायुक्त जड़पूजा की कोई आवश्यकता नहीं है. मानसिक पूजा से ही आत्मकल्याण शक्य है. वीतराग धर्मकी आराधना के लिये त्याग तपश्चर्या की आवश्यकता है. मूर्तिपूजा आगमोक्त नहीं है अहिंसा में ही धर्म है. धर्म के नाम पर सूक्ष्मातिसूक्ष्म हिंसा भी अक्षम्य है. सांसारिक लालसाओं की पूदि हेतु देवार्चन मिथ्यात्व है. रूढि एवं अंधपरम्परा को तोड़ना ही जैनत्व है. जैन जन्म या जाति से नहीं प्रत्युत गुण व आचरण से होता है. जैन धर्म का दीक्षा-प्रसंग भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. मुंडन तो वैराग्य का लक्षण है. कषायविमोचन ही सच्चा वैराग्य है. जैन श्रमण के तो क्षमा मार्दव आर्जव आदि १० निकट अभिन्न सहयोगी होते हैं. वह तो संसार से अत्यल्प ग्रहण कर आत्मकल्याण करता हुआ विश्वकल्याण में सतत निरत रहता है. वह किसी को भारस्वरूप नहीं होता. साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका ये जैन संघ के चार सुदृढ़ स्तंभ हैं. यदि इनमें से कोई एक भी डगमगा जाय तो सारी भव्य इमारत हिल सकती है. साधुवर्ग एवं श्रावकवर्ग दोनों की धर्म को सुदृढ़ बनाने की समान जिम्मेबारी है. अहिंसामय जैनधर्म की हानि से विश्वशांति को खतरा पहुँच सकता है और यह विश्व दुःख के गहरे सागर में गोते खा सकता है. अत: जैन धर्म का सच्चा स्वरूप विश्व का सम्यक् पथप्रदर्शन करता रहे तथा जन-मानस में प्रेम और शांति की भावना जागृत करता रहे, यह सर्वथा बांछनीय है. लोकशाह को कथन की मनहर शैली, सरलता, सज्जनता, विनम्रता समाज की हितभावना एवं दूरगामी दृष्टि प्राप्त थी. उनके उपदेशों का आशातीत प्रभाव होने लगा. लोग खिंचे से आने लगे. कुछ श्रद्धा से आते तो बहुत कुछ कौतूहल से या परीक्षा लेने या तमाशवीन बन दर्शक की तरह आते. पर उनके पास आकर सत्य संदेश के समर्थक बन जाते. एक नई घटना थी. पुराण पंथी वर्ग के खेमे में खलबली मच गई. उनके लिये तो लोकाशाह के ये प्रयास सर्वघाती थे. सत्तालोलुप वर्ग इस प्रभावशाली दूरगामी धर्मक्रांति को देख घबरा गया. लोगों को बहकाया जाने लगा कि लोकाशाह नाम के एक 'लहिये' ने अहमदाबाद में शासन के विरोध में विद्रोह खड़ा कर दिया है. वह धर्मभ्रष्ट है. उत्सूत्र प्ररूपणा कर रहा है, ढोंगी है, छलिया है.' For Private & Personal Use Only 304030093420430030030030030 30 30 30 305 1906 1306 300 300-300 www.jaliselibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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