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________________ SHRIMAR 12419 शान्ता भानावत : तिलोकऋषिजी की काव्यसाधना : १७१ पर ये महाकाव्य और खण्डकाव्य की कसौटी पर नहीं कसी जा सकतीं, यद्यपि इनमें कई भावपूर्ण रसात्मक स्थल हैं पर प्रधान दृष्टि इतिवृत्त पर ही रही है. कथानक अन्त की ओर दौड़ते प्रतीत होते हैं. सभी में धार्मिक दृष्टि और उपदेश की भावना प्रमुख रही है. इन कथाओं के नायक वैभवशाली राजा भी हैं और नवयौवनसम्पन्न राजकुमार भी. नगर के प्रख्यात सेठ-साहूकार भी हैं और शीलधर्म पर प्राण देनेवाली सदनारियाँ भी. इतना अवश्य कहा जायगा कि सारे पात्र ऊँचे कुल और वैभव-विलास से सम्बन्ध रखनेवाले हैं. सामान्य पात्रों की ओर कवि का ध्यान शायद इसलिए नहीं गया, क्योंकि वह भुक्ति से मुक्ति की ओर, भोग से योग की ओर, और राग से विराग की ओर जीवन-प्रवाह को गति देना चाहता है. कहीं-कहीं तो ये आख्यान केवल पद्यबद्ध कथा-काव्य बनकर ही रह गये हैं. इन आख्यानपरक कृतियों में कई काव्य-रूप दृष्टिगत होते हैं. जिन आख्यानों को चार ढालों में गुम्फित किया गया है वे 'चौढालिया' नाम से अभिहित किये गये हैं. सुदर्शन सेठ, अर्जुनमाली, नंदीषेण मुनि, वर्धमान स्वामी, खंदक मुनि, मेतारज मुनि, प्रानन्द, कामदेव आदि रचनाएँ 'चौढालिया' संज्ञक रचनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं. जो आख्यान पाँच ढालों में लिखे गये हैं वे 'पंचडालियाँ' नाम से प्रसिद्ध हैं. 'महावीर स्वामी का पंचढालिया' तथा 'भृगु पुरोहित पंचढालिया' ऐसी ही रचनाएँ हैं, जिनमें प्रमुख नायक का चरित्र प्रधानतः वर्णित है वे 'चरित्र काव्य' कहे गए हैं. ऐसे चरित्र काव्यों में आलोच्य कवि द्वारा लिखे गये श्रीचंद केवली चरित्र, श्रीसीता चरित्र, श्रीनेमिचरित्र, हंसकेशवचरित्र, धर्मबुद्धि पापबुद्धि चरित्र, श्रेणिक चरित्र, शालिभद्र चरित्र, समरादिन्य केवली चरित्र आदि प्रमुख हैं. 'लावणी' नाम से भी कई आख्यान पद्यबद्ध किये गये हैं, काल की लावणी, जीव-रक्षा की लावणी, गजसुकुमाल की लावणी, धन्नाजी की लावणी, पंचम आरा की लावणी आदि ऐसी ही रचनाएं हैं. 'छंद' संज्ञक रचनाओं में श्रीआचार्य छंद, श्रीपार्श्वनाथजी का छंद, साधु छंद आदि के नाम गिनाये जा सकते हैं. राजमती बारहमासा, गौतम स्वामी रास, जयकुमार की चौपाई आदि रचनाएँ भी इसी वर्ग की हैं. इन आख्यानमूलक रचनाओं के सम्बन्ध में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि वे प्रभाव डालने में बड़ी कारगर सिद्ध हुई हैं. जन साधारण में धर्म-प्रचार करने के साधन रूप में इन रचनाओं की बड़ी उपयोगिता है. (ग) औपदेशिक काव्य के माध्यम से उपदेश देना संत कवियों की सामान्य प्रवृत्ति रही है. जिनमें कवित्वप्रतिभा नहीं होती वे सीधा औपदेशिक भाव प्रकट कर ही रह जाते हैं पर जिसे कविता का वरदान प्राप्त है वह लाक्षणिक अभिव्यक्ति द्वारा उस भावविशेष को सरल बना देता है. यों तो कवि ने सामान्यतः संसार की असारता, शरीर की नश्वरता, मन की चंचलता कामभोगों की निस्सारता आदि का वर्णन कर साधक को कषाय-त्याग, व्रत-पालन, दया-दान, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि वृत्तियों की ओर अभिमुख किया है. यदि कवि इन भावनाओं को अभिधेय अर्थ में ही ग्रहण करके रह जाता तो वह पद्यकारों की श्रेणी में ही गिना जाता है पर तिलोक ऋषि ने अपनी रूपकयोजना द्वारा सामान्य लौकिक भावों में भी अलौकिक सौन्दर्य और अध्यात्मभावों का माधुर्य भर दिया है. यह रूपकयोजना सामान्यत: चार रूपों में व्यवहृत हुई है. जितने भी लौकिक त्यौहार हैं उन्हें अध्यात्म भावना का रंग दिया गया है. इन त्यौहारों में दशहरा, धनतेरस, रूपचवदस, दीपावली, होली, शीतला सप्तमी, वसन्तपंचमी, अक्षयतृतीया, गणगौर, पर्युषण पर्व आदि त्यौहारों को कवि ने अपना वर्ण्य विषय बनाया है. देश और काल को भी कवि ने आध्यात्म भावों में बांधा है. जिन-जिन गाँवों और नगरों में कवि ने पद-यात्रा की है उनके नामों और गुणों को लोकोत्तर अर्थ में ढालकर आत्मा को पवित्र बनाने का उपदेश दिया गया है. काल की दृष्टि से कवि ने एक ओर बारहमासा को रूढिगत विरहालाप से बाहर निकाल कर अध्यात्म क्षेत्र की ओर मोड़ा है तो दूसरी ओर सात वारों सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, रवि को भी आत्मधर्म से उपमित किया है. सामान्य नाम संस्करण प्रणाली को भी अध्यात्म रंग में रंग दिया गया है. इस यह प्राशय का एक कवित्त उद्धृत किया जाता है : प्रेमसी जुम्भारसिंह वश किया जीवराज, मानसिंह भाईदास मिल्या चारौ भाई है, कर्मचन्द्र काठा भया, रूपचन्दजी से प्यार, धनराजजी की बात चाहत सदाई है। Gan ya ASNA RSS LATED SS Laf ___ Jat HALI QUALITET UUNDU library.org N: JiGHA NIMALSunny
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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