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________________ नरेन्द्र भानावत प्रा० जयमल्लजी : कृतित्व-व्यक्तित्व : १५३ XXXXXXXXXXHEMERNME* (ख) लोक-जीवन से लिए गए उपमानः-- (१) ओ जीव राय ने रक थयो, वलि नरक निगोदमां बह रे रह्यो, रड़बडियो जेम गेडि दड़ो, श्री शान्ति जिनेश्वर शान्ति करो (६-१६) (२) चार गतिनां रे दुख कह्या, जीवे अनंति अनंति बार लह्या, पची रह्यो जिम तेल वड़ो, श्री शान्ति जिनेश्वर शान्ति करो (६-२०) (३) तामस तपियो नर इसो, आँख मिरच जिम आँजी रे. क्रोध विणासे तप सही, दूध विणासे कांजी रे (६८-२०) (४) आदि अनादि जीवड़ो, भमियो चऊं गति मांय. अरहट घटिका नी परे, भरि आवे रीति जाय (८४-१) (५) काल खड़ो थारे वारणे, जिम तोरण आयो वींद (११३-१०) (६) डाभ अणी जल जेहवोजी, आगिया नो चमत्कार. तेहवो ए धन आउखोजी, बीजली नो झबकार (१२५-७) (७) पिण परवश पड़ियां जोर न लागे, जिम दबी सांप नी ठोडी रे (१३५-७) (८) ले जाई लक्कड़ में दीधो, हुवो घर रो धोरी रे. घास फूस छाणा देई ने, फूंक दियो जिम होली रे (१३५-१६) (६) अथिर ज जाणो रे थांरो आउखो, जिम पाको पीपल पान (१४०-४) (१०) सड़ण-पड़ण-विधसंण देहनी, तिणरी किसड़ी रे आस. खिण एक मांही रे जासी बिगड़ी, जिम पाणी माहे पतास (१४१-१६) (११) देव गुरु धर्म री नहीं पारखा, सगलाई जाणे सारखा. जिम सरवर नी फूटी पाल (१५६-४) लगभग सभी उपमान मौलिक और सटीक हैं. इनसे कवि के विस्तृत ज्ञान और सच्चे अनुभव का पता चलता है. विना मर्मभेदिनी दृष्टि के ऐसे उपमान ढूंढे ही नहीं जा सकते. जीव की परिभ्रमणशीलता का न जाने कितने कवियों ने वर्णन किया है पर उसकी विवशता को 'रड़वड़ियो जेम गेडि दड़ो' और 'पची रह्यो जिम तेल बड़ो' कह कर इसी कवि ने पुकारा. क्रोधी मनुष्य के स्वभाव का 'आंख मिरच जिम आंजी रे' से सुन्दर वर्णन और क्या होगा ? काल के आने की अनिवार्यता और निश्चितता का संकेत 'तोरण आयो वींद' से अधिक और क्या हो सकता है ? शरीर की नश्वरता का बोध 'पाणी मांहे पतास' से अधिक कौन करा सकता है ? इन उपमानों में जितना साधर्म्य निहित है उतना अन्यत्र बहुत कम देखा जाता है. रूपक-दृष्टि में भी कवि पीछे नहीं रहा. अधिकतर उसने सांगरूपक बांधे हैं. कुछ उदाहरण यहाँ दृव्य हैं (१) साधूजी ऊठ्या सूरमा रे, ज्ञान घोड़े असवार. कर्म कटक दल जंझिया रे, विलम्ब न कीध लिगार (१६२-३३) (२) म्हारे क्षमा गढ़-मांय, फोजां रहसी चढ़ी-री माई. बारे भेदे तप तणी, चोको खड़ी. बारे भावना नाल, चढ़ाऊं कांगरे-री माई. तोडूं पाठे कर्म, सफल कार्य सरे (३४३-२४,२५) Jain Education Intemattonal For Private Personal use only Www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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