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________________ नरेन्द्र भानावत : श्रा० जयमल्लजी : व्यक्तित्व-कृतित्व : १५१ MUNSEEN930NESEN20999NE जमारे' को सफल और सार्थक बनाने के लिए आत्मा को सन्नद्ध होना होगा. 'दीवाली' शीर्षक कविता में जो आध्यात्मिक रूप, दीवाली को दिया गया है, वह महादेवी के 'क्या पूजा क्या अर्चनरे' गीत की याद दिला देता है. यह सही है कि इन नीतिपरक युक्तकों में काव्य की अपेक्षा उपदेश की अधिक प्रधानता है. अन्य नीतिकार कवियों ने जहाँ सूक्तियों के माध्यम से लोकव्यवहार की बातें कहकर लोक-जीवन को सुखी बनाने का उपक्रम किया है, वहाँ कवि जयमलजी का लक्ष्य लोकोत्तर जीवन को सफल बनाने का रहा है. एक ने लौकिक पक्ष के विविध रहस्यों का उद्घाटन किया है तो दूसरे ने आत्म-प्रदेश की यात्रा में पड़ने वाले विभिन्न स्थलों का पर्यटन. एक की दृष्टि यथार्थमूलक अधिक रही है तो दूसरे की पूर्णतः आदर्शमुलक. तत्त्वप्रधान मुक्तकों में जैन-दर्शन के कतिपय तात्त्विक सिद्धान्तों को पद्य बद्ध किया गया है. यहाँ कवित्व पीछे छूट गया है और दर्शन की पारिभाषिकता तथा दुर्बोधता उभर आई है. ऐसे मुक्तकों में 'इरियावही नी सज्झाय', 'चौबीस दंडक नी सज्झाय', 'पन्द्रहपरमाधर्मी देव', 'शास्त्र छत्तोसी', 'जीवा बयालीसी' आदि रचनाओं के नाम गिनाये जा सकते हैं. उपर्युक्त विवेचन से इस संत कवि की काव्य-साधना और भाव-व्यंजना का विशद स्वरूप हमारे सामने प्रत्यक्ष हो उठता है. कवि में प्रबन्ध-पटुता, वर्णन-कौशल और रसोपलब्धि कराने की क्षमता के साथ-साथ मुक्तक-रचनाओं के सृजन की प्रतिभा भी है. संक्षेप में कहा जा सकता है कि जयमलजी की कविता में कबीर का विद्रोह, सूर का वात्सल्य और तुलसी का लोकहित, साथ-साथ दिखाई देता है. . काव्य-कला-साधक-कवियों की दृष्टि काव्य-कला पर उतनी नहीं रही जितनी जीवन-निर्माण की कला पर. यही कारण है कि इनकी कविताओं में आपको न तो कल्पनाओं का स्वछन्द विहार मिलेगा, न भावनाओं का शृंगारपरक उद्दाम वेग. न यहाँ 'भूषण बिना न राजइ कविता वनिता मित्त' की मादक मनुहार मिलेगी, न छन्दों का संग्रहालय.' ये कवि तो अनुभूति में जितने सच्चे और खरे हैं अभिव्यक्ति में भी उतने ही स्पष्ट और सीधे. इन्हें चमत्कार प्रदर्शन कर किसी का हृदय जीतना नहीं था, काव्य के माध्यम से जीने की कला बताकर उनका उद्धार करना था. इस कसौटी पर संत कवि आचार्य जयमलजी की काव्यकला खरी उतरती है. कविता करना इनका लक्ष्य नहीं था. धर्मोपदेश देते समय जन-साधारण को आत्मा, परमात्मा, पाप, पुण्य, बंध, मोक्ष आदि का स्वरूप समझाने के लिए जो भावनाएँ हृदय में उठती थीं, वे ही तन्मयता की स्थिति में सरस और तीव्र बनकर कविता बन गई. ये अपनी बात जनता की ही भाषा में कहने के अभ्यस्त रहे हैं. संस्कृत, प्राकृत के विशिष्ट ज्ञाता होते हुए भी इन्होंने अपनी रचनाएँ सामान्यतः राजस्थानी भाषा में ही लिखी हैं. जयमलजी का विहारक्षेत्र और कार्यक्षेत्र भी अधिकतर राजस्थान हो रहा है, अतः यहाँ की लोकसंस्कृति, लोक-व्यवहार और लोक-भावना का सही प्रतिविम्ब इनकी रचनाओं में झलकता है.२ भाषा पर कवि का अच्छा अधिकार है. वह भावानुकूल उठती-गिरती है. प्रबन्धात्मक रचनाओं में भाषा का प्रवाह और माधुर्य है तो मुक्तक रचनाओं में उसका गांभीर्य और सारल्य. भाषा की प्रवहमानता और मधुरता का एक उदाहरण देखिए १. दीवाली जयवाणी, पृ०५३ २. (क) विवाह में जिनको बुलाया जाता है उन्हें पीले चावल दिये जाते हैं: 'विगर बुलायां आविया रे, थाने किण पीला चावल दोधा' (ख) अमंगल होने पर स्त्री का दायां अंग फड़कता है. राजुल सखियों से कहती है: ___ 'म्हारे जीमणो फरूके गातो ए, जग-नाथो-ए । मिलसी के मिलसी नहीं क-पहिया ए॥ (ग) अनिष्ट निवारण के लिए अमांगलिक बात पर थूक दिया जाता है: राजुल की सखियां इसीलिए कहती हैं : 'बाई ! बोलतां मती चूको ए, परो थूको ए ।। तोरण ऊपर आवियो क सहियां ए॥ JaipantMITHAOTOnihityirtant TREAnimationAMATTIME. WORSHAN SOURCLURANHunt TIM . .. HINDraly.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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