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________________ नरेन्द्र भानावत : प्रा० जयमल्लजी : व्यक्तित्व-कृतित्व : १४५ 對事業群 सकी. इसका प्रायश्चित्त उसे वात्सल्य रस की सजीव प्रतिमा बना देता है. और वह अन्ततः आठवें पुत्र (गजसुकुमाल) की माता बनकर अपने मातृत्व को सार्थक करती है. देव पात्रों में देवता और यक्ष आते हैं. ये सहायता भी करते हैं और आतंकित भी. पर इन दैविक शक्तियों के आगे भी ऊर्जस्वल मनुष्यत्व कभी नतमस्तक नहीं होता. इन कथा-काव्यों में इतिवृत्त की प्रधानता है. कथा में वस्तु-वर्णन और दृश्य-वर्णन के कई अवसर आये हैं. दृश्य-वर्णनप्रमुख स्थल प्रायः निम्नलिखित रहे हैं-- (क) वस्तु रूप में:(१) नगर-वर्णन (२) वैभववर्णन (३) जन्म-वर्णन (४) रूप-वर्णन (५) विवाह-वर्णन (६) मुनि-दर्शन-वर्णन, दीक्षा-वर्णन (ख) भाव-रूप में:(१) मुनि-व्रत की कठोरता का वर्णन (२) श्रृंगार के संयोग-वियोग रूप (३) वात्सल्य के संयोग-वियोग रूप (४) वीर और रौद्र रस के चित्र (५) करुण और शान्तरस के चित्र (७) मुक्त हास्य का सजीव चित्र. वस्तु रूप में जो चित्रण हैं, वे इतिवृत्तात्मक बनकर ही रह गये हैं. प्रकृति-चित्रण और उसकी आलंकारिक क्षमता के कारण ये वस्तुवर्णन रस-परिपाक में असमर्थ रहे हैं. जैन मुनियों ने प्रकृति के उपादानों से ग्रहण करने का प्रयत्न किया है परन्तु उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम भिन्न रहा है. अर्थात् वैष्णव कवियों ने कृष्ण-भक्ति के नाम पर विलासविवर्धक तथ्याभिव्यक्ति में तनिक भी संकोच नहीं किया है, जब कि अध्यात्मसंस्कृतिमूलक जीवनयापन करने वाले एवं आत्मस्थ सौन्दर्यप्रबोधक सन्तों ने प्रकृति से साधना के प्रकाश में सौन्दर्य ग्रहण तो किया है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम पार्थिव सौन्दर्यमूलक तथ्य न हो कर अन्तरंग सौन्दर्य ही रहा है.. नगर-वर्णन में उसके वैभव का ही अधिक चित्रण है. द्वारिका नगरी के वर्णन में कवि ने उसके ऐश्वर्य को यों व्यक्त किया है 'सोवन कोट रतन कांगुराजी, सोभे रूड़ा आवास । झिग मिग करने दीपताजी देवलोक जिम सुख वास ।।-पृ. ३१८ रूप-वर्णन के तीन प्रसंग हैं. जन्म के अवसर पर, विवाह के अवसर पर और मुनि-दर्शन के अवसर पर. द्रौपदी का जन्म हुआ है. उसके रूप का कोई पार नहीं. उसकी बोली शकरकंद-सी मीठी, उसका अर्ध चन्द्राकृति सम ललाट, नयन कमल से विकसित, भुजाएँ मृणालिनी-सी, नासिका दीपशिखा-सी और दंत-पंक्ति दाडिम-कुली-सी. विवाह के लिए नेमिनाथ वरयात्रा सजाकर चले हैं. रथ में बैठे हुए वे ऐसे लगते हैं मानों ग्रह-नक्षत्रों के बीच चन्द्र हो'. देवकी भगवान् नेमिनाथ को वन्दना करने के लिए जा रही है. उसने स्नान कर नया वेश धारण किया है, आभूषण पहने हैं- हाथों में कंकण, कंठ में नवसर हार, पैरों में नूपुर; मानों साक्षात् देवांगना हो.3 १. कुवरी रूप माहे रलियामणी, मुख बोले अमृत-चारण । मीठी शाकरकंद सी, बले भासे हित मित जाण ।। नयण सलगगी रे कन्यका। अरध शशी सम सोभतो, पुनि पूरण भरियो भाल । नयन कमल जिम विकसता, बेहूँ बांह कमल नी नाल ।। नाशिका दीपे शिखा समी, नकवेसर लहे नाक । दंत जिसा दाडिम कुली, मृग-नयनो सूरत पाक ||-पृ० ३१८-१८ २. नगारां री धोरज बाजे, आकाशे जाणे अंबर गाजे । नेम कॅवर रथ बैठां छाजे, ग्रह नक्षत्र में जिम चंद्र विराजे ।।-पृ० २२२ ३. न्हाई ने मंजन करी, पहिर्या नव-नवा वेश । माणक मोती माला मंदड़ी, गहणा हार विशेष ।।-पृ० २१३ Jain Education Intematonal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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