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________________ RAMREEMPERMIRMIRMANEMRREE ११९ । मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय जिन्हें उनके कंठविनिर्गत पद और भजन सुनने का सौभाग्य मिला है, वे भली भांति जानते हैं कि उनकी वाणी में कैसा अनोखा जादू था. उनकी धर्मदेशना का अद्भुत प्रभाव होता था कि लम्बा समय भी व्यतीत होते पता नहीं चलता था. मैंने लोगों को कहते सुना है "चालो मीठो बखाण सुणणने चालो काई" मधुरता के साथ-साथ उनकी भाषा में बड़ा ही ओज तथा प्रबल आकर्षण था. दयालुता, वचनदृढ़ता और निर्ममत्व उनके स्वाभाविक गुण थे. संवत् २००१ में इसी महान् सरलात्मा के चरणकमलों में दीक्षा स्वीकार करने की मेरी इच्छा हुई. किन्तु गुरुदेव व गुरुणीजी ब्यावर में नहीं थे. इच्छा व्यक्त करते ही विद्युत् वेग की तरह सम्पूर्ण शहर में चर्चा फैल गई. मेरे भाई गुलाबचन्द जी मुणोत गुरुदेव के पास अश्रुपूर्ण नेत्रों से पहुँचे. उन्हें रोते देख गुरुदेव की आँखें भी सजल हो गईं. बोले-'गुलाबचन्द भाई, क्या बात है ? रोओ मत, बात कहो।' गुलाबचन्दजी ने निश्वास छोड़ते हुए कहा-'गुरुदेव बड़ी आशा लेकर आया हूँ.' गुरुदेव बोले-'कहो न फिर !' वे कहने लगे---'गुरुदेव, बाई संयम लेने को कहती है. यह मेरे लिये ही नहीं, दोनों परिवारों के लिए असह्य है. हम इसे साध्वी के रूप में नहीं देख सकते ! बाई को बहुत समझाया, पर वह नहीं मान रही है. अपने विचारों में अडिग है ! अतः मैं आपसे एक आश्वासन लेने आया हूँ.' 'वह क्या ?' 'मैं दीक्षा नहीं दूंगा,' बस यही आपसे सुनना चाहता हूँ हुजूर ! आप पर दृढ़ विश्वास है और मैं यहाँ से प्रसन्न चित्त होकर घर वालों को खुश खबर सुनाऊंगा दयालु! आपके मना कर देने पर दीक्षा नहीं हो सकेगी.' गुरुदेव ने फौरन कह दिया था—'चिन्ता मत करो गुलाबचन्दजी, मैं क्या मेरी आज्ञा में रहने वाला कोई संत या सती, यहां तक कि राजस्थानी कोई भी साधु साध्वी तुम्हारी बहिन को दोनों घर वालों (सुसराल और पीहर पक्ष) की प्रसन्नता पूर्वक प्राप्त आज्ञा के विना-दीक्षा नहीं देंगे.' फिर पीठ पर थपथपी लगाते हुए कहने लगे—'अब मत रोओ. चिन्ता दूर हो गई न ?' गुलाबचन्दजी प्रसन्न थे. उनकी कामना सफल हुई. यह है गुरुदेव की दयालुता का ज्वलन्त उदाहरण. दूसरा उनका गुण था-'कहे हुए शब्दों पर दृढ़ता.' इस आश्वासन का पता लगने पर मुझे बड़ा दुःख हुआ. पर क्या किया जाय ? कुछ ही देर बाद, बात दिमाग में आ गई. गुरुदेव ने ठीक ही तो कहा-'आज्ञा के विना जैन मुनि दीक्षा नहीं देते. मैं आज्ञा प्राप्त करूंगी तो दीक्षा लेने की मनाई भी नहीं होगी.' किन्तु आठ वर्षों तक अत्यन्त कोशिश करने पर भी आज्ञा नहीं मिली. तब स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली. किन्तु गुरुदेव व गुरुणीजी म० ने मुझे स्वीकार नहीं किया. तब मैंने गुरुदेव के समक्ष नम्रता पूर्वक प्रार्थना की. 'गुरुदेव, अब तो मैं घर जाने वाली नहीं हूँ. महाव्रत दे दीजिये.' उत्तर मिला-'मैं वचन दे चुका हूँ. तुम्हें दीक्षा नहीं दे सकता.' किन्तु महान् सौभाग्य से उन दिनों पंजाब प्रान्तीय पं० श्रीविमलमुनि जी आगए और दीक्षा हो गई. यह थी गुरुदेव की वचनदृढ़ता. तीसरा गुण निर्ममत्त्व तो इसी से स्पष्ट है कि मैं गुरुदेव की शिष्या बनने जारही थी. गुरुदेव का ही परिवार बढ़ रहा था. फिर भी वे चेली के मोह से ऊपर उठे रहे. दीक्षा के बाद मैं गुरुदेव के चरणों में पहुँची. देखते ही कहने लगे—'कांई ओ ! गुलाबचन्द जी की बहन, साधुपणों सौरो है ? विहार अने लोच विगेरा सोरो हुयो ?' मैंने कहा-'तहत्त.' तत्पश्चात् गुरुणी जी से कहा-कांई ओ झमकूजी, मारग में आहार पाणीरी तकलीफ तो नहीं रही ?' 'सब जोगवाई ठीक बैठ गई गुरुदेव ?' raran wyon.jainegbrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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