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________________ लेखक परिचय : १०१ श्री गोपीलाल अमर–जन्मस्थान पड़वार (सागर-म० प्र०) अमरजी प्राचीन हृदय और नवीन मस्तिष्क के संगम तथा दर्शन और विज्ञान के समन्वय स्थल हैं. सागर में रह कर आपने शास्त्री, काव्यतीर्थ, साहित्यरत्न और एम० ए० परीक्षायें उत्तीर्ण की हैं. संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी के लेखक हैं. दर्शनशास्त्र में विशेष रुचि रखते हैं. प्रमेयरत्नमाला, प्रमेय रत्नालंकार और अष्टसहस्री का सम्पादन कर चुके और कर रहे हैं. अनेक अ० भारतीय स्तर की संस्थाओं के पदाधिकारी हैं. श्री गोवर्धन शर्मा-जन्मस्थान कंटालिया (मारवाड़). इस समय आप गुजरात कॉलेज अहमदाबाद में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हैं. सन् १६४२ से ही आप हिन्दी में विभिन्न विषयों पर लिख रहे हैं. कहानी, कविता, एकांकी शिक्षा, शोधपरक निबंध, सभी में समान दिलचस्पी है, एम० ए० (हिन्दी) में प्रथम स्थान और स्वर्णपदक प्राप्त किया. 'प्राकृत और अपभ्रश का डिंगलसाहित्य पर प्रभाव' विषय पर राजस्थान वि० वि० से पी-एच. डी० की उपाधि प्राप्त की. आप की अनेक रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं. पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ-जन्मस्थान भादवा (जयपुर). बचपन में ही लकवे की बीमारी से पैर अपंग हो गए. स्याद्वाद महाविद्यालय काशी में रह कर दर्शन और साहित्य की उच्च शिक्षा प्राप्त की, वर्षों से जैन कालेज जयपुर के अध्यक्ष पद पर आसीन हैं. कुशल लेखक, सफल समालोचक, निर्भीक वक्ता और पारंगत विद्वान् हैं. जैन बन्धु और जैनदर्शन पत्रों के सम्पादक रहे. 'वीरवाणी' के सम्पादक हैं. भावनाविवेक, अहत्प्रवचन, जैनदर्शनसार और सर्वार्थसिद्धिसार आप की प्रकाशित रचनायें हैं. प्राचीन शोध में आप की गहरी रुचि है. संस्कृतसाहित्य के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् हैं. डा. जगदीशचन्द्र जैन-जन्मस्थान बसेड़ा (मुजफ्फरनगर) दर्शनशास्त्र में एम० ए० और समाजशास्त्र में पी-एच० डी० किया. सन् १९४२ के स्वातन्त्र्य संग्राम में कारावास का अनुभव लिया. पैकिंग विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक रहे. वैशाली विद्यापीठ में प्राकृत के प्राध्यापक रहे. वर्तमान में फिल्म सेंसर की बम्बई ऐडवाइज़ री पेनल के सदस्य हैं. लगभग ४० पुस्तकों के लेखक. आपका 'प्राकृतसाहित्य का इतिहास' ग्रंथ उत्तरप्रदेश शासन की ओर से पुरस्कृत हुआ है. श्री जयभगवान वकील-आपका ज्ञान सर्वतोमुखी था। साम्प्रदायिकता के समीप नहीं फटकते थे । समन्वयात्मक दृष्टि रहती थी। रूढ़िवादी नहीं थे किन्तु रूढ़िवादियों का विरोध भी नहीं करते थे। नगर में तथा भारतीय दि० जैन समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी। सफल साहित्यकार और अन्वेषक थे । खेद है आप अचानक ही हमारे बीच से उठ गए। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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