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________________ 米米米諾諾萊茶梁张茶茶茶茶蒸茶器来 ७४ : मुनि श्रीहजारीमलजी स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय हुआ था और संघ की इस मौलिक तथा दूरगामी भावना को मूर्त करने के लिए ही उपाध्याय कविरत्न श्रीअमरचन्दजी महाराज, उमेशमुनि विजयमुनि तथा इन पंक्तियों का लेखक-हम चारों सन्त आगरा से दिल्ली और दिल्ली से ब्यावर की कठिन-कठोर यात्रा करके उस नयी दुनिया में पहुंचे थे. ब्यावर-क्षेत्र और वहाँ का रंगीला वातावरण हमारे लिए एकदम नया था ! हम भी बिल्कुल नए-सर्वथा अपरिचित ! पर, उस रंगीन और संगीन वातावरण में भी हम प्रसन्न और मस्त ! सन्तों के तीन पक्ष तो वहाँ पहले मौजूद थे ही इधर से हम पहुंच गए, नए पंछी-तटस्थ-बिल्कुल निष्पक्ष ! उन तीनों पक्षों का आपस में कोई ताल-मेल नहीं, और हमारा सब से मेल-जोल, बोल-चाल, वार्ता-व्यवहार, हिलन-मिलन यानी हम सबके और सब हमारे । तटस्थता की नीति इसीलिए तो स्पृहणीय तथा उपादेय है कि, वह व्यक्ति-व्यक्ति, समाज-समाज तथा राष्ट्र-राष्ट्र को मिलाती है, जोड़ती है, एक मंच पर बिठाती है, सह-अस्तित्व एवं सह-जीवन का पाठ पढ़ाती है. उन्हीं दिनों प्रवर्तक श्रीहजारीमलजी म. से हमारा मिलन हुआ. क्षमापना का पावन दिन था. हम मिले, घुल-मिल कर मिले. तन से मिले, मन से मिले, लहर से मिले, बहर से मिले, वन्दना क्षमापना की प्रथा चली, भावना की उमंग चली, वार्ता-व्यवहार का दौर चला. खुलकर दिल के अरमान निकले-निकाले. और, मैंने देखा, जैन-जगती के महान् सन्त श्रीहजारीमलजी महाराज के चेहरे पर एक प्रसन्न आभा खेल रही थी. उनका रोम-रोम खिल रहा था. उनके मनकी प्रसन्न लहर उनकी वाणी पर थिरक रही थी. मधुर-मिलन की उस वेला में हम भी प्रसन्न, वह भी प्रसन्न, दर्शक भी प्रसन्न ! आस-पास के वातावरण पर प्रसन्नता तैर रही थी. उस सहज-शान्त जीवन, सरल-सौम्य व्यक्तित्व तथा निश्छल-सात्विक स्वभाव की एक मधुर-स्मृति आज भी मेरे मनमानस में घूम रही है, आँखों के सामने झूम रही है ! और, उनके पुनीत चरण-कमलों में अपनी भाव-प्रवण श्रद्धांजलि अर्पित-समर्पित करते हुए, अन्तर्मन एक अमाप्य हर्ष की अनुभूति कर रहा है ! मुनिश्री नेमचन्द्रजी महाराज सरलात्मा श्रीहजारीमलजी महाराज बहुत दिनों से नाम सुना था. आँखें उनके दर्शनों की प्यासी थीं. मीराबाई के प्रसिद्ध भक्तिस्रोत मेड़ता नगर में सर्वप्रथम उनके दर्शन हुए. मैंने उन सरलमति, सरलगति और सरल हृदय के दर्शन किए. आँखें अभी तक अतृप्त थीं, चाहती थीं कि उनके साथ बातचीत करके उनके वचन और हृदय की थाह ली जाय । बातचीत की पहल मैंने ही की—'आप सुख शान्ति में हैं, महाराज ! उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक प्रत्युत्तर में कहा ...' हां देवगुरु-धर्म के प्रसाद से आनन्द है. आप सन्तों के सुखसाता तो हैं न ?' बस, फिर तो लगभग आध-पौन घण्टे तक हमारी दिन चर्या, अध्ययन, प्रगति आदि के बारे में बातें चलीं. इन बातों में उन्होंने सरलभाव से, प्रसन्न मुखमुद्रा में हमारे जीवन के विकास के लिए दिलचस्पी ली. फिर तो मेड़ता में जितने दिन रहे, कुछ न कुछ चर्चा सहजभाव से चलती रही. इसके बाद ब्यावर में कई बार स्वामीजी महाराज के दर्शन हुए,मिलन हुआ, मैंने देखा कि वे अलग उपसम्प्रदाय (स्थानकवासी सम्प्रदायान्तर्गत) के होते हुए भी कदापि साम्प्रदायिकता को उत्तेजित करनेवाली या छिद्रान्वेषण करने की एक बात भी नहीं करते थे. ब्यावर वैसे साम्प्रदायिक तनाव का गढ़ है. और वहाँ साम्प्रदायिकता के तत्त्व, समय-समय पर दोष-छिद्र ढूंढ़ने की दृष्टि Jain Elucation inematiche For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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