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________________ ज्योतिष एवं श्रीमद्राजेन्द्रसूरि मुनि जयन्तविजय 'मधुकर' ज्योतिष एक ऐसा विज्ञान है, ऐसा तथ्य-विश्लेषण, जिससे कोई भी मनुष्य अछूता नहीं रह सकता। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी समस्याएँ हैं और प्रत्येक समस्या का इस विज्ञान में समाधान सन्निहित है। मुहर्त प्रकरण के विज्ञाता तत्कालीन बलाबल की समीक्षा कर उसका सम्यक् निरूपण करते हैं और तदनुसार अनुकूलता या प्रतिकूलता का निर्णय देते हैं । सूय, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र एवं तारकावलि इत्यादि ज्योतिश्चक्र विश्व-प्रांगण में अनादिकाल से गतिशील हैं । संक्रान्तियों में कभी इनकी रश्मियाँ घटती हैं, कभी बढ़ती हैं; कभी इनकी गति मन्द हो जाती है, कभी तेज एवं कभी इनका बल बढ़ जाता है तो कभी कम हो जाता है । इसका प्रभाव सर्वत्र कुछन-कुछ होता ही है। ज्योतिष को मुख्यत: दो भागों में बांटा गया है-गणित और फलित । फलादेश द्वारा ज्योतिष दीपक की भूमिका का निर्वाह करता है । भविष्य के सघन अन्धकार में सावधानी की किरण इससे मिल जाती है; ज्योतिष गणित है, अन्धविश्वास नहीं; जो इसे अन्धविश्वास की भांति मानते हैं उनकी बात अलग है किन्तु जिन मनीषियों ने इसे गणित और विज्ञान की तरह विकसित किया है, वे इसे कार्य-कारण की श्रृंखला से मूलबद्ध एक तर्क-संगत भूमिका पर प्रस्तुत करते हैं। मुहर्त-प्रकरण ज्योतिष का एक महत्त्वपूर्ण अनुभाग है । फलितादेश भी उतने ही महत्त्व का है । सम्पूर्ण दिन में व्यतीत घड़ियाँ भिन्नताओं और वैविध्यों से भरी होती हैं । परिज्ञान सम्भव है; किन्तु इनके गहरे तल में उतरने के बाद ही । अनुमान की भूमि पर खड़ा ज्योतिष खतरनाक होता है, किन्तु तर्क और गणित की जमीन पर अपना पाँव जमाये ज्योतिष अधिकांशतः दिग्दर्शक होता है। कुछ घटिकाएँ देवताओं की हैं, कुछ दानवों की, कुछ मानवों की; ब्रह्म-मुहूर्त, विजय मुहूर्त और गोधूलि-बेला इसी ओर संकेत करते हैं । प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व और पश्चात् ३०/३० मिनिट ब्रह्ममुहूर्त, मध्याह्न कालोत्तर पूर्व ३०/३० मिनिट विजय मुहुर्त; तथा सूर्यास्तोत्तर-पूर्व ३०/३० मिनिट गोधूलि-मुहूर्त होता है । ज्योतिविज्ञान के परिज्ञान के लिए जैनाचार्यों ने संस्कृतप्राकृत में अनेक ग्रंथ लिखे हैं । 'दिनशुद्धिदीपिका", "भद्रबाहु संहिता", ''लग्नशुद्धि", "ज्योतिष हीर", "हीर कलश", "जैन ज्योतिष", "आरंभ-सिद्धि", यन्त्रराज" आदि ग्रंथ इस तथ्य के परिचायक हैं कि इस क्षेत्र में जैनाचार्यों का कितना अपूर्व योगदान रहा है। श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी-जैसे इस विज्ञान के परम ज्ञाता थे, जिन्होंने जन्म-पत्रिका देखते ही राजकुमार की क्षणजीवी स्थिति की घोषणा कर दी थी। भारत के सांस्कृतिक इतिहास को देखने से पता चलता है कि ज्योतिर्विज्ञान एक महत्त्वपूर्ण विज्ञान रहा है जिसे देश के विद्वानों ने निरन्तर आगे बढ़ाया है । इन समर्थ ज्योतिर्विज्ञानियों ने ग्रह-संचरण, प्रत्येक जीव के निजी जीवन, विभिन्न गतियों में मार्गी-वक्री के रूप में; सम, विषम या चर; स्थिर द्वि-स्वभाव की स्थिति में कर, शान्त या सहवासजन्य स्वरूपता का समीचीन और स्पष्ट समीक्षण किया है । श्रीमद्राजेन्द्रसूरिजी का जीवन भी इस विज्ञान से अछूता नहीं रहा। उन्होंने मात्र इसे जाना ही नहीं, इसका गहन अध्ययन वी.नि. सं. २५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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