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________________ वचनसिद्धि : पूज्य गुरुदेव की जे. के.संघवी करा लो, अगले साल तो चारों ओर भीषण दुःभिक्ष पड़ेगा । श्री संघ ने बात मान ली और सं. १९५५ में ९०० जिनबिम्बों की अंजनशलाका व प्रतिष्ठा महोत्सव बड़ी ही धूमधाम पूर्वक संपन्न हुवा। उस समय यहां करीबन ५० हजार समुदाय इकट्ठा हुवा था । राजस्थान में यह पहला अवसर था जबकि इतने लोग एक जगह पधारे थे । इतनी मानव मेड़नी में किसी को कोई प्रकार की तकलीफ नहीं हुई। अगले साल गुरुदेव की वाणी सत्य प्रतीत हुई। १९५६ में जो दुर्भिक्ष पड़ा आज भी कहावतों में 'छपनीयाकाल" के नाम से प्रसिद्ध है। पंचपरमेष्ठी में तीसरे पद पर स्थित आचार्य का जिन शासन में अनूठा महत्व है । इस पंचम काल में जबकि अरिहंत व सिद्ध भगवान का विरह है शासन की बागडोर इन्हीं के हाथों में है। शास्त्रानुसार आचार्य भगवंत ३६ गुणधारी होते हैं-पाँच इंद्रियों (चमड़ी, जीभ, कान, आँख, नाक) को अपने वश में रखने वाले ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों को धारण करने वाले, चार कषायों (क्रोध, मान, माया लोभ) से दूर रहने वाले, पाँच महाव्रतों (हिंसा, झूठ, चोर, अब्रह्म, परिग्रह के त्याग) से युक्त पाँच आचार (ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार) के पालन में उद्यमशील, पाँच समिति (इर्यासमिति, भाषासमिति, एषणा समिति, आदान मण्डमतनिक्षेपणा समिति, पारिष्ठापनिका समिति) व तीन गुप्तियों (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति) का पालन करने वाले-३६ गुणों से युक्त थे पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी । उनके द्वारा सात भागों में रचित "अभिधान राजेन्द्र कोष" उनकी ज्ञान साधना का जीता-जागता उदाहरण है जिसे देखकर बड़े-बड़े दार्शनिक भी दांतों तले अंगुली दबाते हैं । गुरुदेव की ध्यानावस्था उत्कृष्ट कोटि की थी। ध्यान के बल पर वे भविष्य को जानते थे । (१) संवत् १९५५ की बात है । पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी आहोर में विराजमान थे । श्री संघ की भावना यहां प्रतिष्ठा व अंजन शलाका महोत्सव कराने की अगले साल की थी। पूज्य गुरुदेव ने कहा, "प्रतिष्ठा इसी साल (२) दूसरी तरफ इसी अवसर पर अन्य संघ ने आदिनाथ आदि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा दूसरे मंदिर में करने की ठानी। प्रतिष्ठा सम्पन्न कराने के लिए जयपुर जाकर खरतरगच्छीय श्री पूज्यजी जिनमुक्तिसूरीजी से विनंती की। उन्होंने कहा-"वहां विराजमान राजेन्द्रसूरीजी को ज्योतिष आदि का अच्छा ज्ञान है । जब उनके द्वारा यह कहा गया कि इस प्रतिष्ठा के लिए मुहूर्त अच्छा नहीं है फिर वहां जाना अशुभ ही है" लेकिन श्रावकों द्वारा ज्यादा आग्रह करने पर लोभवश वे आहोर गये । आते ही कर्मयोग से वे रोग पीड़ित हो गये । यहां रात तीसरे पहर उठकर राजेन्द्रसूरीजी ध्यान में बैठे पश्चात् प्रतिक्रमणादि नित्यक्रिया से निवृत्त हो अपने शिष्यों से बोले कि मैंने ध्यान में आज गतप्राण श्री पूज्यजी को देखा है । कुछ समय बाद गांव से किसी व्यक्ति ने आकर यही समाचार कहे । गुरुदेव द्वारा ध्यान से यही बात पहले जानकर सब दंग रह गये। वी.नि.सं. २५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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