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________________ परिषद् के पदाधिकारियों का चुनाव--परिषद् अपने वार्षिक सम्मेलनों में पदाधिकारियों के कार्य संचालन हेतु चुनाव करती है और सर्वानुमति से भिन्न-भिन्न भागों के लोगों को यह अवसर दिया जाता है। परिषद् का लक्ष्य-परिषद यह चाहती है कि अपने पूरे त्रिस्तुतिक समाज का सुदृढ़ संगठन कुछ वर्षों के प्रयास से बना लिया जावे और इस संगठन के माध्यम से समाज-विकास के कार्यक्रम जगह २ आयोजित किये जावें। पू. मुनि श्री जयंत-विजयजी का परिषद् के प्रति हार्दिक लगावजब से इस परिषद् की स्थापना हुई है तब ही से निरन्तर महाराज श्री का पूर्ण सहयोग एवं प्रेरणा समाज के युवकों को मिलती रही है और महाराज श्री का लक्ष्य है कि पूरा समाज एक परिवार के रूप में परिवर्तित हो जाय तो समाज की फिर कोई ऐसी समस्या नहीं रह सकती जिसका हल न निकाला जा सके। समाज से निवेदन है कि-त्रिस्तुतिक-समाज इस परिषद् को अपनी संस्था मानकर इसमें निरन्तर सहयोगी बने तो कुछ ही वर्षों में यह समाज एक शक्ति-शाली समाज के रूप में खड़ा हो जावेगा और अनेक विद्वान इस समाज-गंगा में से उत्पन्न होकर समाज सेवा के कार्य में अग्रसर होंगे। परिषद् का नाम राजेन्द्र जैन-युवक परिषद् क्यों रखा गयाइस संस्था का नाम राजेन्द्र जैन-युवक परिषद् इसीलिये रखा गया कि-श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज-श्वेताम्बर जैनसमाज में एक क्रान्तिकारी साधु हुए हैं। उन्होंने अपने जीवन-काल में जैन समाज को अपने मुख्य लक्ष्य का बोध कराया और शास्त्रानुकूल उन सिद्धान्तों को प्रति-पादित किया है-जिनका गंभीर विवेचन जैन-आगमों में किया गया है। महाराज श्री ने अपने जीवन-काल में ही समाज के हजारों व्यक्तियों को अपने सिद्धान्तों के पालन हेतु प्रेरित किया है और उसी का नतीजा है कि-श्वेताम्बर जैन समाज में त्रिस्तुतिक-जैन-समाज एक व्यवस्थित संगठन का रूप लिये हुए है और समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने गुरु के प्रति हार्दिकश्रद्धा का भाव लिये हुए है। अतएव समाज के प्रत्येक विचारवान व्यक्ति को चाहिये कि वह परिषद् को अपनी संस्था मानकर उसका सदस्य बने और उसकी कार्य-प्रणाली में रुचि ले । आशा है समाज का युवा वर्ग इस पवित्र गंगा को सहयोग देकर इसे उन्नति-शील बनाने में अपना योग-दान देगा ।। रे मान मत कर सुख को न पाया है कहीं, विषय में कोई अभिमान कर । आज तक देखा गया है, अभिमानियों को बेछज अंत पर ॥१॥ जब कुज्ञान का नशा, चढ़ जाता है मानव पर। जन्म भर मदहोश हो जाता, सुध बुध अपनी खोकर ।।२।। मदमस्त हो अभिमान में, धर्म विरुद्ध भाषण करता । यह अर्थ का अनर्थ कर, स्वयं निज मान्यता से गिरता ।।३।। इस तरह के मानवी, इस संसार में गिरते रहे । कई देखे ऐसे अभिमानी, निज धर्म को खोते रहे ॥४॥ मद में छके अभिमानी, धर्म की आड़ में पलते रहे । संसार की निगाहों में गिरते हुए, प्राण को खाते रहे ।।५।। करता क्यों ऐ मानवी, उपार्जन अभाव का । मिट जायेगा एक दिन, घड़ा भर जायगा पाप का ।।६।। जहां संप है वहां क्लेश ही, तू पनपाता रहा । अभिमान में ही तू स्वयं को, सुज्ञ समझाता रहा ॥७॥ पर जानती है दुनिया तुझे, कि तू है कितना सही । अभिमान से गुण विनय का, होता हमेशा नाश ही ॥८॥ होता नहीं अभिमान युत को, ज्ञान का आभास कभी । ऐ मानवी गुरु चरणों में आजा, ज्ञान पावेगा तभी ।।९।। "बुरड" की है यह विनय, छोड़ अपने मान को । जैन धर्म पाया है तुमने, प्राप्त कर सद्ज्ञान को ।।१०।। जन -मांगीलाल बुरड राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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