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________________ बाजू की शांतिनाथ एवं श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमाएं हैं। नूठ मण्डप में अधिष्ठायक देवी की प्रतिमा एवं देवताओं के चरण पादुकाएं विराजमान हैं। इसके अतिरिक्त भाग में दोनों ओर दरवाजे हैं जिनके पास ही प्राचीरों पर समवसरण, शत्रुज्य, अष्टापद, राजगिरी, नेमीनाथ प्रभु की बरात सम्मेद शिखर, गिरनार पावापुरी के सुन्दर एवं कलात्मक पट्ट लगे हुए हैं। आगे चार-चार खम्भों पर आधारित सभा मण्डप है। जिसकी गोलाकार गुमटी में नृत्य एवं वाद्ययंत्रों को बजाती नारियों की मूर्तियां खड़ी हुई हैं। जिसके आगे एवं प्रवेश द्वार के समीप ऐसा ही छोटा शृंगार मण्डप है जिसके निचले भाग में संगीत यंत्रों को बजाती नारियों की आकृतियां मूर्तिरूप धारण किए हुए हैं। मूल मंदिर के चारों और पार कृतिकाओं के शिखर दृष्टि गोचर होते हैं। प्रत्येक देव कृतिकाओं में तीन तीन जैन तीर्थकरों की प्रतिमाओं को वि. सं. २०१० ज्येष्ठ शुक्ला दसमी सोमवार को आचार्य देव श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब की निश्रा में भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव के बीच प्रतिष्ठित किया गया है। इसी मूल मंदिर के शिखर के पीछे एक लम्बी तीन घुमटियों वाली साल बनी हुई है जिसमें भी पार्श्वनाथ प्रभु की चार सुन्दर, कलात्मक प्रतिमाओं के साथ एक प्रतिमा श्री गौतम स्वामी की प्रतिष्ठित की हुई है। इस साल में श्री पार्श्वनाथ स्वामी की तीन प्रतिमाएं श्यामवर्णी हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार के आन्तरिक भाग के दोनों किनारों पर बनी देव कुलिकाओं के आसपास दो छोटी डेरियां बनी हुई हैं जिसमें आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनसुन्दरसूरीजी एवं आचार्यदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी की प्रतिमाएं विराजमान की हुई हैं। प्रवेश द्वार के आंतरिक मंदिर भाग में बने छोटे आलों में श्री मातंग यक्ष एवं श्री सिद्धायिका देवी की प्रतिमा भी प्रतिष्ठित की हुई है। चारों देव कुलिकाएं आमने सामने हैं जिसके बीच में ग्यारह ग्यारह खम्भे बने हुए हैं। वि. सं. १०१५ में निर्मित श्री महावीर स्वामी के इस मंदिर की पहली प्रतिष्ठा वि. सं. १२३३ में हुई । इस मंदिर का पहला जीर्णोद्धार वि. सं. १३५९ में करवाया गया । दियाबटी पट्टी जैन श्री संघ ने दूसरी बार वि. सं. १६५४ में एवं तीसरी बार जीर्णोद्धार वि. सं. १९८८ में आचार्यदेव श्रीमद विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के सद्उपदेश से जैन श्री संघ द्वारा करवाया गया। इन्हीं आचार्य महाराज की प्रेरणा से वि. सं. २०१० में भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित हुआ जिसमें चार नवीन देवकुलिकाओं, लम्बी साल एवं गुरु प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई । इस मंदिर की प्राचीरों एवं प्रतिमाओं आदि स्थानों पर वि. सं. १२०१, १२२५, Jain Education International १२५९, १५१६ एवं १७५७ के कुछ प्राचीन शिलालेख भी विद्यमान हैं। मंदिरों की प्राचीरों, खम्भों आदि पर आसलेट की बड़ाई करने से प्राचीनता अवश्य ही लुप्त हो चुकी है। मंदिर के संपूर्ण फर्श पर संगमरमर के पाषाण जोड़े गए हैं। भांडवा का मंदिर जितना पुराना है उतना ही यह गांव भी प्राचीन है । इस गांव की स्थापना जावाली जालोर निवासी परमार भांडूसिंह ने वि. सं. ३ के अंत में की थी। जिसके कारण इस स्थल का नाम भांडवा पड़ा। जो प्राचीन समय में विशाल नगरी होने के कारण भाण्डवपुर के नाम से भी विख्यात रहा है। परमारों से यह स्थल वि.सं. १३२२ में दईया राजपूत बुहेडसिंह ने लिया । जिसके पश्चात् यह क्षेत्र दईया पट्टी दया पट्टी के नाम से परिचायक बना | लम्बे समय के पश्चात् यह स्थल वि. सं. १८०७ में दइया राजपूतों से निकल कर आणा गांव के ठाकुर भाटी मालमसिंह के अधीन रहा । वि. सं. १८६४ में यह प्राचीन स्थल जोधपुर राजघराने की अधीनता में भी रहा । भारत स्वतंत्र होने के पश्चात् आजकल यह राजस्थान प्रदेश के जालोर जिले का सर्व विख्यात भाण्डवपुर जैन तीर्थ के नाम से परिचायक बना हुआ है । जैन धर्मावलम्बियों के २४ वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी का यह तीर्थस्थल होने के कारण यहां प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला १३ से १५ तक विशाल पैमाने पर मेले का आयोजन होता है इस मेले में देश के विभिन्न क्षेत्रों से करीबन दस हजार से अधिक यात्री एवं दर्शनार्थी भाग लेने एकचित होते हैं। मेले में धार्मिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त नाना प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन होता है । इस तीर्थ पर विशाल धर्मशालाएं बनी हुई हैं जिसके अन्तर्गत करीबन २०० आवासीय कोठरियां बनी हुई है। यात्रियों के ठहरने, खानेपीने, बर्तन बिस्तरों आदि की समुचित व्यवस्था है । यहां बिजली, पीने के पानी एवं पक्की सड़क के निर्माण कार्यों की भावी योजना बन चुकी है । यदि ये सुविधाएं यहां उपलब्ध हो जायेंगी उस समय यह स्थल अधिक आगन्तुकों के आवागमन का केन्द्र बन जावेगा। यहां सदैव श्रद्धालु भक्तों की भीड़ लगी रहती है । इस मंदिर के आसपास रहने वाले सभी जाति धर्म एवं संप्रदाय के लोग बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से इस मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान महावीर स्वामी पर आस्था रखते हैं। यहां के लोगों ने मंदिर के एक मील के दायरे में शिकार खेलना निषेध कर रखा है और इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार के पेड़-पौधों का काटना भी मना कर रखा है । इस सम्पूर्ण तीर्थ की देखभाल करने के लिए एक व्यवस्थापक समिति का गठन भी किया हुआ है। For Private & Personal Use Only राजेन्द्र- ज्योति www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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