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________________ हैं तोक्या सम्यग्दृष्टि यही है? ..... क्या कथनी क्या करणी"! इस विषम दृष्टि ने ही हर समाज में, हर देश में, हर राष्ट्र में, हर मानव के हृदय में असमाधि फैलाई है। अगर हम इस असमाधि से मुक्त होना चाहते हैं तो समाधि स्थल रूप सम्यग्दर्शन के मार्ग पर चलें, यही अध्यात्म वैभव का एक रत्न है जो अंधकार में प्रकाश करता है। जो ज्ञान आत्मा में शान्ति एवं क्षमता उत्पन्न करे वह सम्यग ज्ञान । और जो ज्ञान अन्य व्यक्ति को एवं स्वयं को भी अशांति में ले जावे वह मिथ्या ज्ञान । सम्यग्ज्ञान आत्मा को अपने निज गुण में ले जाता है। किन्तु मिथ्या ज्ञान अर्थात् दंभ पूर्वक ज्ञान, आत्मा को गहरे गह्वर में पटक देता है एवं आत्मा को हैरान परेशान कर देता है। केवल स्वयं को ही नहीं अपितु दूसरे अमोघ भाव वाले भव्यात्माओं को भी वह ले डूबता है। ज्ञान इसलिये नहीं कि हम अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर लोक मनरंजन करें व वाद-विवाद को बढ़ावा दें। ज्ञान इसलिये भी नहीं कि हम दूसरों को ही बोध देते फिरें एवं अपने हृदय कमल में उसका कुछ भी सार ग्रहण नहीं करें। वह ज्ञान भी ग्राह्य नहीं जो इच्छित वस्तु की व्याख्या में दूसरों का खंडन करे । नय' की परिभाषा में स्पष्ट स्पष्टीकरण है कि, जो इच्छित वस्तु की व्याख्या करे वह नय और अनिच्छित वस्तु का खंडन करे वह नयाभास । तात्पर्य यह है कि हम अध्यात्म वैभव के इस ज्ञान मार्ग को प्राप्त कर स्वयं व पर दोनों को हित में रखकर ही जिन शासन में उसका उपयोग करें। वह ज्ञान कदापि प्रशंसनीय नहीं है जो ज्ञान आपस में विवाद फैलावे, असामयिक भाव को उत्पन्न करे, कलह, रोष, को आविर्भत करे। सम्यग्ज्ञान की यह व्याख्या भी दर्शन ग्रंथों में समझने एवं जानने के योग्य है। उसी प्रकार सम्यक आचरण भी जीवन विकास में महत्वपूर्ण भाव अदा करता है जिसके बिना गति, प्रगति' असंभावित है। (जीव-रक्षा : सृष्टि-संतुलन . . . 'पृष्ठ १८५ का शेष) (६) अन्य प्राणी किस तरह हमारे जीवन के साथ बंधे हुए हैं, वे हमारा क्या-क्या हित करते हैं, उनकी हिसा हमें अपने ही स्वार्थ के लिए क्यों नहीं करनी चाहिये इत्यादि तथ्य भी लोगों के सामने उघाड़े जाने चाहिये। विकल्प भी दिये जाने चाहिये। अहिंसा का वातावरण बनाने के लिए इस प्रकार के ग्रन्थों को अल्पमूल्य में उपलब्ध कराना चाहिये। (३) विदेशों में जहाँ भी शाकाहार को लेकर जो भी प्रयोग हुए हैं, हो रहे हैं, उनकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये और उनका व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिये। हमारी संस्थाएँ इस कार्य को युद्धस्तर पर कर सकती हैं। (४) बौद्धिक और सामान्य स्तर पर कुछ ऐसी सभा-संगोष्ठियां भी की जानी चाहिये जो अहिंसक जीवन-मूल्यों के महत्व को प्रतिपादित करती हों और शाकाहार के लाभों को बताती हों। (५) अन्धविश्वासों और भ्रामक धारणाओं का भी वैज्ञानिक तथा तर्कसंगत खण्डन किया जाना चाहिये। आज भी कई गांवों में बलि-प्रथा प्रचलित है। इस तरह जहाँ भी, जिस-जैसे स्तर पर शाकाहार और जीवरक्षा के प्रचार-प्रसार का एक व्यापक कार्यक्रम हमें तय करना चाहिये और उसके क्रियान्वयन में अपनी संपूर्ण शक्ति लगा देनी चाहिये । जैन धर्म की प्रभावना का इससे बड़ा कोई अन्य कार्यक्रम नहीं हो सकता। मुझे विश्वास है समस्त जैन-समाज मेरे द्वारा ऊपर सुझाये गये कार्यक्रम पर गंभीरता से विचार करेगा और अहिंसा के एक उपेक्षित व्यवहार पक्ष को जल्दी ही मूर्त रूप देगा। जिस प्रकार मिट्टी से बनी कोठी को ज्यों-ज्यों धोया जाता है, उसमें से गारा के सिवाय सारभुत वस्तु कुछ मिलती नहीं, उसी प्रकार जिस मानव में जन्मत: कुसंस्कार घर कर बैठे हैं, उसको चाहे कितनी ही अकाट्य युक्तियों द्वारा समझाया जाए, वह सुसंस्कारी कभी नहीं होता । विविध सांसारिक वेशों को चुपचाप देखते रहो, परन्तु किसी के साथ राग-द्वेष मत करो । समभाव में निमग्न रह कर अपनी निजता में लीन रहो, यही मार्ग तुम्हें मोक्षाधिकारी बनायेगा । -राजेन्द्र सूरि १९० राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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