SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म वैभव मुनि नरेन्द्र विजय अनादि अनन्त काल से आत्मा संसार में परिभ्रमण कर रही है। आत्मा यद्यपि कर्म का कर्ता है व्यवहार नय के आधार पर । किन्तु निश्चयनय की शुद्ध अपेक्षा से तो जीव कर्म का कर्ता व भोक्ता नहीं है। आत्मा केवल निज गुणों में रमण करने वाला है । वह निज गुण 'चतुष्टय गुण' के नाम से जैन दर्शन के आगम ग्रन्थों एवं प्रकरण ग्रन्थों में उल्लेखित है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सामर्थ्य, अनन्त चरित्र। फिर भी आत्मा एवं कर्म का संयोग कब से हुआ? यह प्रश्न सहज ही मन में हो सकता है । इस प्रश्न के समाधान में उदाहरण के साथ प्रवचनकारों ने शास्त्र में फरमाया है कि स्वर्ण एवं मिट्टी कब से साथ में हुए? इसकी कोई नियमित कालगणना निर्धारित नहीं है । उसी तरह से आत्मा एवं कर्म भी अनादि काल से साथ हैं । आत्मा एवं कर्म का संबंध क्षीरनीरवत् है। किन्तु हाँ ! यह बात नहीं कि “आत्मा कर्म बन्धन से मुक्त नहीं हो सकती ।" अवश्य ही अनन्त आत्माएँ मुक्ति को प्राप्त हुई हैं । वर्तमान में भी हो रही हैं (अन्य क्षेत्र में) और भविष्य में भी आत्मा मुक्त होवेंगी । व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा कर्म का कर्ता, भोक्ता एवं मुक्ता भी है । ध्यान देने जैसी बात तो यह है कि जैन . दर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है । “स्वयं करो, स्वयं फल पाओ" । इसलिए तो कर्म बन्धन से मुक्त होने के उपाय भी इस दर्शन के अनेक ग्रंथों में उपलब्ध हैं । और इसी तथ्य को लक्ष्य में लेकर अनेक महापुरुषों ने कर्मावरण से मुक्त होकर पुरुष से महापुरुष, मानव से महामानव एवं आत्मा से परमात्मा बने हैं । परमात्म शक्ति स्वयं में भी मौजूद है, किन्तु वह सत्ता में है उदय में नहीं। इसी अमूल्य अध्यात्म सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन भी प्रस्तुत किया है । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र उमास्वातिस्वामी विरचित है, वे इस सूत्र में प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ही लिखते हैं कि "सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः" व्याख्या सरल है(१) सम्यग्दर्शन-अर्थात् सीधा देखना (१) सम्यग्ज्ञान-सीधा जानना (३) सम्यक्चारित्र---अर्थात्-सदाचार को अपनाना। ये हैं सही मानों में अध्यात्म वैभव ! अमूल्य रत्नत्रय हैं ये। भवरूप उदधि से तिराने के लिये ये तीर हैं। आत्मा स्फटिकवत् निर्मल एवं विमल है, किंतु उसने अपने स्वयं को भूलकर कुछ भूल भरी बातें स्वीकार करली हैं । इसलिये उसका दर्शन गण मिथ्यात्व के आवरण से आवरित है। जैसे दीपक में प्रकाश फैलाने की शक्ति निहित है, पर हम दीपक पर बाल्टी अथवा अन्य कुछ आवरण कर दें तो प्रकाश सीमित हो जाता है, एवं अप्रत्यक्ष हो जाता है । उसी तरह से आत्मा में भी दर्शन गुण की अनंत-अनंत प्रकाश किरणें विद्यमान हैं। किन्तु कर्मावरण के कारण आत्मा सत्य एवं तथ्य वस्तु स्थिति को देखने के लिये उत्सुक एवं इच्छुक भी नहीं होती। इस मूलगुण पर कर्म ने कुठाराघात कर जीव को सदा पर भाव में रत रखा है। स्वभाव दशा से विमुख होकर हम विषम स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं, हम समझते हैं कि हम प्रगति कर रहे हैं किन्तु आश्चर्य की बात है वह घाणी का बैल, दिन भर चलता है, थकता भी है परन्तु चल-चल कर कहाँ पहुँचेगा?" जी कहाँ पहुँचेगा? "वही धाणी और वही गोल चक्कर"। आजकल यही स्थिति बड़ी ही तीव्र गति से फैल रही है। हाहाकार मचा हुआ है केवल मात्र विषमता के कारण सही दृष्टिकोण ही सही लक्ष्य केन्द्र पर पथिक को पहुंचाता है। दृष्टिकोण में ही अगर विष घुला है तो बताइये अमृतफल कहाँ से मिलेगा? हम दूसरों को गिराकर आगे बढ़ना चाहते हैं, दूसरों के लिये प्रपंच उत्पन्न कर स्वयं प्रपंच मुक्त होना चाहते हैं, हम दूसरों का अपमान कर स्वयं की मान रक्षा चाहते वी. वि. सं. २५०३ १८९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy