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________________ अतः उसने आगे आने वाली अपभ्रंश और आधुनिक मराठी को अधिक प्रभावित किया है। प्राकृत और महाराष्ट्री भाषा का तुलनात्मक अध्ययन कई विद्वानों ने प्रस्तुत किया है। यद्यपि महाराष्ट्री प्रात ही मराठी भाषा नहीं है। उसमें कई भाषाओं की प्रवृत्तियों का सम्मिश्रण है। फिर भी प्राकृत के तत्व मराठी में अधिक हैं। जो शब्द ५-६ ठी शताब्दी के प्राकृत ग्रंथों में प्रयुक्त होते थे वे भी आज की मराठी में सम्मिलित हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि प्राकृत और मराठी का संबंध बहुत पुराना है। भाषा की दृष्टि से मराठी के वे कुछ शब्द यहां प्रस्तुत हैं जो प्राकृत साहित्य में भी प्रयुक्त हुए तथा जिनके दोनों के समान अर्थ हैं। कुछ शब्द नीचे दे रहे हैं प्राकृत मराठी अर्थ (हिन्दी में) अग्रभाग गले का स्नान चूहा कटिवस्तु करवा जैन आचार्यों में कालकाचार्य भी हैं। निशीथचूर्णी से पता चलता है कि आचार्य कालक उज्जैनी से महाराष्ट्र के प्रतिष्ठान नगर में पधारे थे। वहां राजा सातवाहन ने उनका भव्य स्वागत किया। था। आचार्य कालक ने महाराष्ट्र में ही जैनधर्म के प्रसिद्ध पर्युषण पर्व को पंचमी के स्थान पर चतुर्थी को मनाना प्रारंभ किया था। महाराष्ट्र में यह पर्व श्रमण पूजा (समणपूथ) के नाम से प्रसिद्ध हुआ महाराष्ट्र में चांदा जिले में एक बैरागढ़ स्थान है। यह पुराना 'वेण्णयड' है, जहां से प्रसिद्ध जैन आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि गिरनार की ओर गये थे। अतः दूसरी शताब्दी में भी महाराष्ट्र में जैन आचार्य विहार होना था। प्रभावक' चरित्र के अनुसार आचार्य सिद्धसेन का देहावसान प्रतिष्ठान नगर में हुआ था। तथा प्रबंधकोष के अनुसार आचार्य भद्रबाह प्रतिष्ठान के ही रहने वाले थे। अतः महाराष्ट्र से कई जैनाचार्यों का संपर्क रहा है। आचार्य समन्तभद्र सतारा जिले के करहाटक (किराड) में एक वादविवाद में सम्मिलित हुए थे। प्राचीन समय में नहीं अपितु मध्यकाल में भी अनेक जैन आचार्य महाराष्ट्र में हुए हैं। कोल्हापुर में बारहवीं शताब्दी में माघनन्दी नाम के प्रसिद्ध आचार्य थे। कोल्हापुर के ही समीप अर्जुरिका (आजरे) नगर में आचार्य सोमदेव ने सन् १२०५ में शब्दार्णवचंद्रिका नामक व्याकरण-ग्रंथ की रचना की थी। अपभ्रंश के प्रसिद्ध कवि, स्वयंभू एवं पुष्पदंत भी महाराष्ट्र (बरार) के शोरोहिणखेड़ के निवासी थे। जैन आचार्य महाराष्ट्र में केवल भ्रमण ही नहीं करते थे अपितु महाराष्ट्र को संस्कृति और जन-जीवन के संबंध में भी बहुत-सी जानकारी अपने ग्रंथों में प्रस्तुत करते थे। आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य उद्योतनसूरि ने अपनी कुवलयमाला में महाराष्ट्र के संबंध में विशेष जानकारी दी है। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र के काम एवं व्यापारी दक्षिण भारत में विजयपुरी तक शिक्षा प्राप्त करने अथवा व्यापार करने जाते थे। उन्हें तब भी मरहट्ट (मराठे) कहा जाता था। उद्योतनसूरि ने महाराष्ट्र की स्त्रियों को हल्दी के समान रंगवाली गौरवपूर्ण, कहा है। एक अन्य वर्णन के प्रसंग में उद्योतन ने महाराष्ट्र के व्यापारी के रूप, रंग, स्वभाव व भाषा आदि के संबंध में कहा है कि मराठे व्यापारी मजबूत, ठिंगने, श्यामांग, सहिष्णु, स्वाभिमानी तथा कलाप्रिय थे। वे दिण्णत्थे, गहियल्ले जैसे शब्दों को बोल रहे थे। ये शब्द मराठी भाषा में दिलेले एवं घेतलेले के रूप में प्रचलित हैं। जिनका अर्थ है-दिया और लिया। भाषाओं के विषय में महाकवि श्री राजशेखर ने कहागीर्वाणवाणी सुनने योग्य, प्राकृत स्वभाव से मधुर, अपभ्रंश ऐव्य और पैशामी रसपूर्ण है। महाराष्ट्र में महाराष्ट्री अपभ्रंश में जैनियों की प्रचुर रचनाएँ भी मिलती हैं। दक्षिण भारत में महाराष्ट्र में प्राचीन समय से ही संस्कृत और प्राकृत का प्रभाव रहा है। महाराष्ट्री प्राकृत चूंकि लोकभाषा थी अणिया आंधोल अन्दौर कासोटा करवत कोल्हा गार गुटी तोटण चिखल गीदड़ अणिय अंगोहलि अन्दर कच्छोट्ट करवली कोल्लुग गार छंगुड़िया चिक्खल्ल वैली छेप्य जल्ल ढिकुण पत्थर घोडा कीचड़ बकरी सेली शेपुटी जाल पूंछ ढंकण तुंड तोंड नेम तक्क तुली णिरुत्त दद्दर दोद्धिअ नेअण शरीर का मेल खटमल मुंह मठा सूती चादर निश्चय सीढ़ी लोकी ले जाकर पेट भोंकना मौसी मेला साला रंगोली गुड़िया बहु तूली निस्ते दादर दूधी नेऊन पोट भुंकणे माउसी मेला मेवणा रांगोली बाहुली पोट्ट भुक्क माउच्छिय मेला मेहुण रंगावली बाउल्ल सुण्ह सून इस दृष्टि से मराठी भाषा और महाराष्ट्र की संस्कृति पर जैनियों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। १७२ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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