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________________ की उल्लेखनीय प्रतिमा है। इसमें मयूर पर बैठे हुए देव-सेनापति कार्तिकेय का वीर भाव बड़ा प्रभावोत्पादक है। एक दूसरी मर्ति पर आकर्षक मुद्रा में खड़ी हुई गंगा दिखाई गई है, जो हाथ में मंगल घट लिये है। नदी देवताओं का चित्रण लोक कला में बहत प्रचलित हुआ, विशेष कर गंगा और यमुना का । गुप्त काल की अन्य बड़ी मूर्तियां मिली हैं, जिसमें एक सुन्दरी एक पुरुष के गले में दुपट्टा डालकर उसे खींच रही है। पुरुष के वेश को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वह कोई विदूषक है। इस कला कृति को देखकर संस्कृत के विद्वान लेखक बाणभट्ट के उस वर्णन का स्मरण हो आता है जिसमें उन्होंने अन्तःपुर की स्त्रियों के विविध मनोविनोदों की चर्चा की है । एक स्थान पर उन्होंने लिखा है कि अन्त पुर निवास की स्त्रियां बुड्ढे कंचुकियों के गले में वस्त्र डालकर उन्हें खिझाती थी। प्रमुख भारतीय देवी के रूप में लक्ष्मी की मान्यता होने के कारण उसकी पूजा के अनेक विधान मिलते हैं । जैन कल्पसूत्र में लक्ष्मी का अभिषेक विस्तार से वर्णित है। उसे हिमालय के सरोवर में कमल-वाहिनी कहा गया है और दिग्गजों द्वारा जल से लक्ष्मी का अभिषेक करने की चर्चा की गई है । भूदेवी के रूप में लक्ष्मी का गजाभिषेक इस बात का प्रतीक है कि मेघ-देवता द्वारा जल वृष्टि करके भूमि को उर्वरा बनाया जाता है। जैन साहित्य में लक्ष्मी को सौभाग्य और समृद्धि की देवी के रूप में माना गया । अनेक स्थलों पर धन और सुख की प्राप्ति के लिए उसकी पूजा एवं अभिषेक की चर्चा मिलती है। नचना (जिला पन्ना) तथा देवगढ़ (जिला ललितपुर) के शिलापट्टों में रूपायित पाते हैं । इसके बाद उत्तर तथा दक्षिण भारत ही नहीं, अपितु कंबोदिया, जावा, सुमात्रा आदि देशों की कथा में रामकथा का प्रमुख अंकन देखने को मिलता है। भारत और एशिया के अनेक देशों में रामकथा को नाट्य रूप में प्रदर्शित किया जाता है और यह परंपरा आज भी जीवित है। रामलीला की तरह कृष्ण कथा के प्राचीन चित्रण उत्तर भारत में मथुरा, भंडोर (जिला जोधपुर), सूरतगढ़ (जिला बिकानेर), पहाड़पुर (बंगाली देश)तथा भुवनेश्वर की कला में मिले हैं। उत्तर की तरह दक्षिण भारत में भी कृष्ण-लीला के अनेक वित्रण मिले है । ये प्राय: प्राचीन मंदिरों, गुफाओं आदि में उत्कीर्ण हैं । बादामी के पहाड़ी किले पर कृष्णलीला के विविध चित्र देखने को मिलते हैं। उनमें जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, प्रलंब-धेनुक-अरिष्ट आदि का वध, कंस-वध आदि कितने ही दृश्य हैं। इन कृतियों का निर्माण काल ई. छठी-सातवीं शती है । प्राचीन भारत में नागों की पूजा भी विविध रूपों में प्रचलित थी। भगवान कृष्ण के भाई बलराम को शेषनाग का अवतार माना जाता है । विष्णु की शय्या अनन्त नागों की बनी हुई कही गयी है। जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा सुपार्श्व के चिह्न नाग हैं। बौद्ध धर्म के अनुसार मुचुलिंद नामक एक नाग ने भगवान बुद्ध के ऊपर छाया की थी, नन्द और उपनन्द नागों ने स्नान कराया था । रामग्राम के स्तूप की रक्षा का कार्य भी नागों द्वारा संपन्न हुआ था । इस प्रकार भारत के सभी प्रमुख धर्मों में नागों का महत्वपूर्ण स्थान रहा और उनसे संबंधित अनेक लोक कथाएं मिलती हैं। नागों की प्राचीन मूर्तियां पुरुषाकार तथा सर्पाकार दोनों रूपों में मिलती हैं । पहले प्रकार को पुरुष-विग्रह और दूसरे को सर्प-विग्रह नागकल कहते हैं । पहले में नाग-नागी को पुरुष-स्त्री के रूप में दिखाते हैं। उनके सिर पर पांच या सात फन रहते हैं। दूसरे प्रकार की मूर्तियों को प्रायः सन्तान की इच्छा रखने वाली स्त्रियां पूजती हैं। यह पूजा आज तक भारत के विभिन्न भागों में प्रचलित है। बलराम की बहुसंख्यक प्रतिमाओं के अतिरिक्त मानवाकार रूपों में नागों की अन्य विविध मतियां कला में मिली हैं, उत्तर-शुंगकालीन एक शिलापट्ट पर अतीतत्व नामक झील में स्नान करते हुए नागराज पूर्णक, उनके साथी, नाथ तथा कई नागियां दिखाई गई हैं। बौद्ध साहित्य में अनोतत्व भील वाली कथा मिलती है। नागराज्ञी की एक ऐसी प्रतिमा मिली है जिसके शरीर से निकलती हुई पांच स्त्री मूर्तियां दिखाई गयी हैं । ये संभवतः पांच ज्ञानेन्द्रियों की सूचक है। दुर्भाग्य से चार लघु प्रतिमाओं के ऊपरी भाग खंडित हैं। पांचवीं जो पूर्ण है, अपने दोनों हाथों में प्रज्ज्वलित दीप लिए हए है। बौद्ध प्रतिमाओं में भी नागों का विविध रूपों में चित्रण मिलता है। मथुरा की भारतीय मूर्ति कला और चित्रकला में लक्ष्मी का चित्रण बहुत प्राचीन काल से मिलता है। सांची और भरहुत की बौद्ध कला में पद्मस्थिता लक्ष्मी की अनेक सुन्दर प्रतिमाएं उपलब्ध हैं। कहीं पर लक्ष्मी को पुष्पित कमल वन के मध्य अवस्थित दिखाया गया है और कहीं उसे त्रिभंगी भाव में लीला-कमल हाथ में ग्रहण किये हुए प्रदर्शित किया गया है। बैठी या खड़ी हुई लक्ष्मी के अगल-बगल सूंड में मंगलघट लिए हुए हाथी अत्यन्त कलात्मक ढंग से, सांची, मथुरा, अमरावती आदि की कला में अंकित मिलते हैं । भारत के बाहर लंका, हिन्दचीन, हिंदेशिया, नेपाल, तिब्बत तथा मध्य एशिया में भी लक्ष्मी की अनेक कलात्मक मूर्तियां मिली हैं। दुर्भाग्य तथा दरिद्र को दूर करने वाली श्री लक्ष्मी की कल्पना दीपलक्ष्मी रूप में की गई। दक्षिण भारत में दीपलक्ष्मी की विविध कलात्मक कृतियां मिलती हैं। ये प्रायः धातु, हाथीदांत या लकड़ी की निर्मित हैं । दीप को कभी देवी के हाथों में तो कभी सिर के ऊपर दिखाया जाता है । दीप लक्ष्मी की मूर्तियां आज भी लोक कला में पूजी जाती हैं। राम और कृष्ण के चरित्र भी लोक-कथाओं का माध्यम बड़े रूप में बने । राम कथा को हम ईसवीं चौथी शती में १२४ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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