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________________ उपयोग लगाता है । जैन दर्शनकारों ने आत्मा का लक्षण "उपयोगे आत्मा" कहा है जो उक्त आध्यात्मिक भित्ति पर आधारित है। आत्मा का दूसरे प्रकार से तात्विक निरूपण हेतु "ध्रौव्य-उत्पादव्यय-युक्तम् आत्मा"--आत्मा का लक्षण कहा है, जो द्रव्य' गुण और पर्याय के भेदों से आत्म स्वरूप का स्पष्ट दर्शन करा देता है । तात्विक विश्लेषण विस्तार की अपेक्षा रखता है अतः संक्षेप में उदाहरण से यों समझा जा सकता है कि घट के निर्माण में मिट्टी उपादान है, आकार में परिणमन उत्पाद है व फोड़ देने पर बिखरने रूप पर्याय है, पर मिट्टी सभी अवस्थाओं में ध्रौव्य रूप में विद्यमान है। इस प्रकार अनेकों उदाहरण दिये जा सकते हैं। आत्मा ध्रौव्य होने से शाश्वत् सत्तारूप उपादान तत्व है । निमित्त-नैमित्तिकादि में संयोग-वियोग दिखाई देता है तथापि सत्ता का ह्रास कदापि काल नहीं होता। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि स्थापित होने पर आत्मा को पर-वस्तुओं में लाभ-हानि की कल्पना नहीं रहती । वैसी परिणति होने पर आत्म-अध्यवसाय अन्तर की ओर मुड़ जाते हैं। तब बाह्य से विरक्त हुवा द्रव्य-मन उपशांत होता हुवा अपने हित-अहित को आत्म-कल्याण में-आत्म संतोष में वृद्धि पाता है । जितने अंशों में जीव इस ओर बढ़ता है उतने अंशों में वह गुणस्थान लांघता ऊपर चढ़ता है। अतः उस आनन्द की प्राप्ति का आरंभ इस अवस्था में होना शुरू हुवा अथवा मोक्ष मार्ग रूप आनंद भवन के प्रवेश हेतु उसने समता के सोपानों की ओर चरण बढ़ाए अर्थात् आनन्द की सुखानुभूति का निराला स्वाद इस स्थिति में उस जीव को निश्चित रूप में आने लगता है। ईश्वरीय सत्ता का दूसरा अगला पहलू है चित्त की एकाग्रता । ईश्वर ब्यक्ति नहीं, चेतन शक्ति का नाम ही ईश्वर है और चेतना की जितनी-जितनी भावाध्यासों में दृढ़ता होती है, उतना उतना ईश्वरत्व की प्राप्ति का पुरुषार्थ हुवा कहा जा सकता है। विचारों एवं भावों की उत्कृष्टता में, पवित्रता में, आत्मसत्ता ज्योतिर्मय होती है। सौन्दर्य वस्तुओं से पलट कर भावों में दिखने लगता है, रस इन्द्रियों के माध्यम से नहीं, इन्द्रियातीत भाव संवेदनाओं के रूप में मिलने लगता है। चिंतन के क्षेत्र में आदर्शवादी उत्कृष्टता ही छाई रहती है। लोभ और भय के कारण तथा दुष्कर्मों के बंध, संवर (समता) में प्रवेश होने से निर्जरित होने लगते हैं। नए कर्म अर्थात् पुनर्बन्ध दग्ध-बीज के तुल्य कारण के नष्ट होने की स्थिति में कार्य नहीं करते । पर को निजरूप न मानने तथा निज आत्म को पर-रूप न मानने की स्थिति में यह ज्ञानमय आत्मा कर्म का ऐसा अकारक बनता है। इस प्रकार के भाव की रमणता जिस जीव की होने लगे समझना चाहिये कि वह ईश्वरत्व की समीपता का अधिकारी बनकर विशिष्ट आनन्दानुभव की प्रतीति करता है। बाह्य दुःख-सुख को वह सुखाभास मात्र जानकर वैसा सम्यग्ज्ञान का ज्ञायक जीव साता-असाता का वेदन नहीं करता । वह निश्चित ही उस आनन्द में मग्नता पाता है जिसे अनुपमेय, अद्भुत ही कह सकते हैं अथवा तो वह अन्यथा वचनातीत है। अन्त में, आनन्द, विशिष्ट आनन्द के पश्चात् आनन्द के समूह रूप परमानंद-रूप, अवस्था प्राप्त होती है । इस अवस्था में आत्मज्ञानी महात्मा अन्तर में निरन्तर सन्तुष्ट, प्रसन्न, ध्यानस्थ अथवा ललितरूप समभाव में प्रविष्ट होता है। उस दिव्य-चितन, दिव्य प्राप्ति का असाधारण स्वरूप है जहां वह इसी भव में, इसी देह में अपने को मुक्त सिद्ध बुद्ध अवस्था में स्वयं देखता है। भले ही उसका मोक्ष फिर दो तीन भव में कभी भी हो, उसकी उसे कोई इच्छा नहीं रहती। इस अवस्था को बहुत ऊपर के गुणस्थानों में स्वीकार किया जाता है जो परमपुरुषार्थ के आत्मबल से ही प्राप्य है। ऐसे विरले महापुरुष उदाहरण के रूप में विश्व में पाए जाते हैं। सातवें गुणस्थान की प्राप्ति इस काल में भी मान्य है, जहां अप्रमत्तभाव में मोक्ष झांकी का दर्शन होता है। आचार्य प्रवर श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी श्वेताम्बर समाज के संत-महात्माओं में इसी प्रकार की स्थिति के महापुरुष हो चुके हैं, जिन्होंने महान आध्यात्मिक ग्रन्थों को लिखकर जगत के प्राणियों के हितार्थ करुणार्द्र होकर रचना की वह इतिहास की अमरनिधि रूप है। जैन संत का मर्यादित जीवन व दर्शन-ज्ञान चरित्र की साधना करते हुवे ज्ञान-दान का कार्य करना विरल आत्माएँ ही कर पाती हैं । अपना आत्म-कल्याण और ज्ञान-दान इन दोनों प्रवृतियों में सफलता पाना प्रायः असाधारण महात्मा ही कर पाते हैं जो “तिनाणंतारियाणं" का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ऐसे महापुरुष का जीवन व साहित्य युग-युगान्तर के लिये अमर हो जाता है । इस संदर्भ में सूरीश्वरजी ने अमरत्व प्राप्त किया जो प्रकाश की भांति स्पष्ट है। भू-तल पर मानव जीवन की कथा में सबसे बड़ी घटना उसकी आधि-भौतिक सफलताएं अथवा उसके द्वारा बनाये और बिगाड़े हुए साम्राज्य नहीं प्रत्युत सच्चाई और भलाई की खोज' में उसकी आत्मा की, की हुई युग-युग की प्रगति है। जो व्यक्ति आत्मा की इस खोज के प्रयत्नों में भाग लेते हैं, उन्हें मानवीय सभ्यता के इतिहास में स्थाई स्थान प्राप्त हो जाता है। समय, महावीरों को अनेक अन्य वस्तुओं की भांति भुला चुका है, परन्तु संतों की स्मृति कायम रहती है। ___अपना नाम अमर करने के लिये बड़े-बड़े सम्राटादि हुवे, उन्होंने अपने नाम पर बड़े-बड़े नगर, मुहल्ले, स्तुप, भवनादि बनाए पर उनका आज नामों-निशान नहीं रहा । समय और प्रकृति के एक धक्के ने उन्हें मूल से उखाड़ दिया । इतिहास इस तथ्य का साक्षी है, किन्तु अध्यात्म जगत की प्रत्येक वस्तु स्थाई है, आधि-भौतिक आक्रमण यहां असर नहीं करते ।। एतदर्थ सारांश यह है कि जो पुरुष आध्यात्मिक जगत का साम्राज्य प्राप्त करके, आत्मिक विभूतियों का स्वामी बन जाता है और आत्म-विकास का उज्ज्वल आदर्श जगत के सामने प्रस्तुत कर देता है, काल उसका दास बन जाता है, वह युग-युग का प्रेरणा स्रोत बन जाता है और सबसे परे निर्लिप्त, अनासक्त करुणा वह आत्मा अध्यात्मज्ञानी अजर-अमर रूप इस सत्चित आनन्द धन आत्मा के अव्याबाध अनंत सुख को प्राप्त कर उस परममोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है जिसके लिये देवतागण भी तरसते हैं पर वे इस मानव देह की दुर्लभ प्राप्ति कर सुलभ बना जाते हैं। ऐसे महापुरुषों के मार्ग का अनुकरण कर प्रत्येक जीवात्मा आनन्दधन रूप परमात्म पद को प्राप्त कर सकती है। ९० राजेन्द्र-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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