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________________ के धरातल पर ही स्वीकार करके रह जायें और यह वस्तु या विचार के साथ मन के समायोजन (Adjustment) तक ही सीमित न कर दे और तीसरा यह कि हम वैज्ञानिक चिन्ता-धारा को छोड़कर कहीं मध्ययुगीन संस्कारों में फिर न बंध जायें। ऊपर जिन खतरों की चर्चा की गई है वे निराधार नहीं हैं । उनके पीछे आधार है । 'ध्यान' के संबंध में जो पश्चिम की हवा चली है वह भोग के अतिरेक की प्रतिक्रिया की परिणति है, आत्मा के स्वभाव में रमण करने की सहज वृत्ति नहीं । भौतिक ऐश्वर्य में डूबे पश्चिम के मानव के लिए वह भौतिक यन्त्रणाओं से मुक्ति का साधन है, इन्द्रिय-भोग के अतिरेक की थकान की विश्रान्ति है, मानसिक तनाव और दैनन्दिन जीवन की आपावापी से बचने का रास्ता है। ध्यान के प्रति उसकी ललक भौतिक पदार्थों की चरम संतृप्ति (संत्रास) का परिणाम है, उसका लक्ष्य प्राच्य मनीषियों की तरह मुक्ति या निर्वाण प्राप्ति नहीं है । उसे वह शारीरिक और मानसिक स्तर तक ही समझ पा रहा है। उसके आगे आत्मिक स्तर तक अभी उसकी पहुँच नहीं है । उसे वह शारीरिक और मानसिक स्तर तक ही समझ पा रहा है । उसके आगे आत्मिक स्तर तक अभी उसकी पहुँच नहीं है। पर हमारे यहाँ ध्यान योग की साधना भोग की प्रतिक्रिया का फल नहीं है। उसका उद्देश्य महान है। वह चरस, गांजा का विकल्प नहीं है और न है कोरा मन का बैलासिक उपकरण । उसके द्वारा आत्मा के स्वभाव को पहचान कर उसमें रमण करने की चाह जागृत की जाती है। चित्तवृत्ति का निरोध किया जाता है-इस प्रकार कि वह जड़ नहीं बने वरन् सूक्ष्म होती हुई शून्य हो जाय । रिक्तता नहीं वरन् अनन्त शक्ति और आनन्द से भर जाय। ध्यान शक्ति और शांति का स्रोत आज की प्रमुख समस्या शांति की खोज की है। शांति आत्मा का स्वभाव है। वह स्थिरता और एकाग्रता का परिणाम है। आज का मानस अस्थिर और चंचल है। शांति की प्राप्ति के लिए मन की एकाग्रता अनिवार्य है पर मन आज चलायमान है। "योग शास्त्र" में मन की चार दशाओं का वर्णन किया गया है-- १. विक्षिप्त दशा:-आज विश्व का अधिकांश मन इसी दशा को प्राप्त है। मस्तिष्क के अत्यधिक विकास ने मन को विक्षिप्त बना दिया है। वह लक्ष्यहीन, दिशाहीन होकर इधरउधर भटक रहा है। वह अत्यन्त चंचल, अस्थिर और निर्बल बन गया है। उसे इन्द्रिय भोगों ने संतृप्ति के बदले दिया हैसंत्रास, तनाव और तृष्णा का अलंध्य क्षेत्र । कूठा और अत्यधिक निराशा तथा थकान के कारण वह विक्षिप्त हो निरुद्देश्य भटकता है। २. यातायात दशा:-विज्ञान ने यातायात और संचार के साधन इतने तीव्र और द्रुतगामी बना दिये हैं कि इस दशा वाला मन गति तो कर लेता है पर दिशा नहीं जानता । वह कभी भीतर जाता है, कभी बाहर आता है । किसी एक विषय पर टिक कर रह नहीं सकता। वह अवसरवादी और दल-बदलू बन गया है । वह किसी के प्रति वफादार नहीं, प्रतिबद्ध नहीं, आत्मीय नहीं । वह अपने ही लोगों के बीच पराया है। आज के युग की यह सबसे बड़ी दर्दनाक मानव त्रासदी है। इस अस्थिरता और चंचलता के कारण वह सबको नकारता चलता है, किसी का अपना बनकर रह नहीं पाता। ३. श्लिष्ट दशा:--इस दशा का मन कहीं स्थित होने का प्रयत्न तो करता है, पर उसकी स्थिरता प्रायः क्षणिक ही होती है। दूसरे यह अपवित्र, अशुभ व बाह्य विषयों में ही स्थिर रहने का प्रयत्न करता है। शास्त्रीय दृष्टि से आर्त एवं रौद्र ध्यान की स्थिति वाला है यह मन । जहां शुभ भावना और पवित्रता नहीं वहां शांति कैसे टिक सकती है। पश्चिम का वैभव सम्पन्न मानस इसी दशा का है। ४. सुलीनदशा:-इस दशा का मन शुभ एवं पवित्र भावनाओं में स्थित रहकर एकाग्रता व दृढ़ता प्राप्त करता है। ध्यान साधना का मुख्य लक्ष्य मन को सुलीन दशा में अवस्थित करना है। आज का मानस चंचल, अस्थिर, अनुशासन-हीन और उच्छृखल है। ध्यान उसमें स्थिरता और सन्तुलन की स्थिति पैदा करता है । आज का व्यक्ति गैर जिम्मेदार बनता जा रहा है उसमें कार्य के प्रति लगन, तल्लीनता और उत्साह नहीं है। वह अपने ही कर्तव्यों के प्रति उदासीन बन गया है। इसका मुख्य कारण है चित्त की एकाग्रता का अभाव । इस एकाग्रता को लाने के लिए ध्यानाभ्यास आवश्यक है। पर यह ध्यानाभ्यास आसन और प्राणायाम तक ही सीमित न रह जाय। इसे यम-नियमादि से तेजस्वी बनाना होगा। चित्तवृत्ति को पवित्र और संयमित करना होगा, मन की गति को मोड़ना होगा। उसे स्वस्थता प्रदान करना होगा। ध्यान की भूमिका तैयार करने के लिए उचित आहार-विहार, सत्संग और स्थान की अनुकूलता पर भी दृष्टि केन्द्रित करनी होगी अन्यथा ध्यान की ओट में हम छले जायेंगे और हमारा प्रयत्न आत्म-प्रवंचना बनकर रह जायेगा। आज की प्रमुख समस्या तीव्र और गतिशील जीवन में भी स्थिर और दृढ़ रहने की है। ध्यान साधना इसके लिए भूमि तैयार करती है। वह मानसिक सक्रियता को जड़ नहीं बनाती, चेतना के विभिन्न स्तरों पर उसे विकसित करती चलती है। आन्तरिक ऊर्जा को जागरुक बनाती चलती है। उससे आत्मशक्ति की बेटरी चार्ज होती रहती है, वह कमजोर नहीं होती। यह ध्याता पर निर्भर है कि वह उस शक्ति का उपयोग किस दिशा में करता है। यहां के मनीषी उसका उपयोग आत्म स्वरूप को पहचानने में करते रहे, जब आत्म शक्ति विकसित और जागृत हो जाती है, हम उसकी तुलना में विघ्नों पर विजय प्राप्त करते चलते हैं । (शेष पृष्ठ ९२ पर) ८८ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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