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________________ आध्यात्मिक दृष्टि से इन्हें 'ध्यान' नहीं कहा जा सकता। ये अशुभ ध्यान हैं। धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान शुभ ध्यान हैं। इनका चिन्तन राग-द्वेष को कम करने के लिए किया जाता है। ये आभ्यन्तर तप माने गये हैं। धर्म ध्यान के चार प्रकार माने गये हैं शुक्ल ध्यान के आरम्भिक दो ध्यानों में श्रुत ज्ञान का अवलम्ब लेना होता है जबकि अन्तिम दो में श्रुत ज्ञान का आलम्बन भी नहीं रहता । अतः ये दोनों ध्यान अनालम्बन कहलाते हैं। बौद्ध धर्म में ध्यान पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। वहाँ ध्यान (झान) का एक अर्थ चित्तवृत्तियों को जलाना भी किया है। यहां ध्यान के दो मुख्य प्रकार माने गये हैं (१) आरंभण उपनिज्झान : जो चित्त के विषयभूत वस्तु (आलम्बन) पर चिन्तन करे। (१) आज्ञा विचय : आगम सूत्रों में प्रतिपादित तत्वों को ध्येय बनाकर उनका चिन्तन करना । (२) उपाय विचय : रागद्वेषादि दोषों के क्षय हेतु ध्येय बनाकर उनमें लीन होना। (३) विपाक विचय : कर्म के विविध फलों को ध्येय बनाकर उनकी निर्जरा के लिए चिन्तन करना । (४) संस्थान विचय : द्रव्य की विविध पर्यायों को ध्येय बनाकर उनमें एकाग्र होना । (२) लक्खण उपनिज्झान : जो ध्येय वस्तु के लक्षणों पर चिन्तन करे। आरंभण उपनिज्झान के आठ भेद हैं धर्म ध्यान के आगे की अवस्था शुक्ल ध्यान है। यह शुद्ध ध्यान माना गया है । इसके भी चार प्रकार हैं(१) पृथक्त्व वितर्क सविचार : इसमें अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण रूप से-एक पदार्थ को विचार कर उसे छोड़ दूसरे पदार्थ में विचारा जाना विचार किया जाता है। (२) एकत्व वितर्क सविचार : इसमें एक ही पदार्थ पर अटल रहकर अभेद बुद्धि द्वारा विचार किया जाता है। इसमें संक्रमण का अभाव रहता है। (३) सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति : इसमें मन-वचन-काय संबंधी स्थूल योगों को सूक्ष्म योग द्वारा रोक दिया जाता है और मात्र श्वास-उच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया ही रह जाती है। इसका पतन नहीं होता। सयोगी केवली को यह ध्यान होता है। १. वितर्क, विचार, प्रीति, सुख व एकाग्रता सहित ध्यान, २. विचार, प्रीति, सुख व एकाग्रता सहित ध्यान, ३. प्रीति, सुख व एकाग्रता सहित ध्यान, ४. सुख व एकाग्रता सहित ध्यान । ये चारों ध्यान रूपावचर ध्यान कहलाते हैं । इनमें वृत्तियों को क्रमशः संक्षिप्त कर चित्त को एकाग्र किया जाता है। ५. आकाशान्त्यायतन, ६. विज्ञानान्त्यायतन, ७. अकिंचनायतन, ८. नेवसंज्ञानासंज्ञायतन । ये चारों अरूपावचर ध्यान कहे जाते हैं। इन आयतनों को जब साधक शनैः शनैः पार कर लेता है तब उसे निर्वाण की प्राप्ति होती है। अंतिम अवस्था को "भवान" कहा गया है। लक्खण उपनिज्झान के भी तीन भेद किये गये हैं-- विपस्सना, भग्ग और फल । विपस्सना में प्रज्ञा, ज्ञान और दर्शन होता है। इसमें विषय-वस्तु के लक्षणों पर विचार किया जाता है। भग्ग में उसका कार्य पूर्ण होता है और फल में उसकी निष्पत्ति होती है। इसी को लोकोत्तर ध्यान कहते हैं जो निर्वाण का विशिष्ट रूप माना गया है। ध्यान तत्व का प्रसार भगवान महावीर और बुद्ध दोनों बड़े ध्यान-योगी थे। ध्यानावस्था में ही दोनों मुक्त हुए। महावीर की ध्यान परम्परा मध्य युग में आकर मन्द पड़ गई। इसके कई सामाजिक और प्राकृतिक कारण रहे हैं । जैन श्रमणों के नगर संपर्क ने भी उसमें बाधा डाली पर बुद्ध की ध्यान परम्परा ने ध्यान सम्प्रदाय का एक स्वतंत्र रूप ही धारण कर लिया और चीन, जापान में उसका व्यापक प्रचार हुआ। वह परम्परा आज भी जीवित है। (४) समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति : जब शरीर को श्वास-प्रश्वास क्रिया भी बन्द हो जाती है और आत्म-प्रदेश सर्वथा निष्कम्प हो जाते हैं। इसमें स्थूल या सूक्ष्म किसी प्रकार की मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया नहीं रहती। यही मुक्त दशा की स्थिति है। राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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