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________________ ध्यान-साधना : आधुनिक संदर्भ डा. नरेन्द्र भानावत ये तीनों मन के विकास में परस्पर सम्बद्ध संलग्न हैं । ध्यान एक प्रकार की मानसिक चेष्टा है। यह मन को किसी वस्तु या संवेदना पर केन्द्रित करने में सक्रिय रहती है। पर आध्यात्मिक पुरुषों ने ध्यान को इससे आगे चित्तवृत्ति के निरोध रूप में स्वीकार कर आत्मस्वरूप में रमण करने की प्रक्रिया बतलाया है।' आज का युग विज्ञान और तकनीकी प्रगति का युग है, गतिशीलता और जटिलता का युग है, अत: यह प्रश्न सहज उठ सकता है कि ऐसे द्रुतजीवी युग में ध्यान-साधना की क्या सार्थकता और उपयोगिता हो सकती है ? ध्यान का बोध हमें कहीं प्रगति की दौड़ में रोक तो नहीं लेगा? हमारी क्रियाशीलता को कुंठित तो नहीं कर देगा? हमारे संस्कारों को जड़ और विचारों को स्थिति-शील तो नहीं बना देगा ? ये खतरे ऊपर से ठीक लग सकते हैं पर वस्तुत: ये सतही हैं और ध्यान-साधना से इनका कोई सीधा संबंध नहीं है । वस्तुत: ध्यान साधना निष्क्रियता या जड़ता का बोध नहीं है। यह समता, क्षमता और अखंड शक्ति व शांति का विधायक तत्व है। एक समय था, जब मुमुक्षुजनों के लिए ध्यान का लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति था। वे मुक्ति के लिए ध्यान-साधना में तल्लीन रहते थे। आध्यात्मिक दृष्टि से यह लक्ष्य अब भी बना हुवा है। पर वैज्ञानिक प्रगति और मानसिक बोध के जटिल विकास ने ध्यान साधना की सामाजिक और व्यावहारिक उपयोगिता भी स्पष्ट प्रकट कर दी है। यही कारण है कि आज विदेश में ध्यान भौतिक वैभव से सम्पन्न लोगों का आकर्षण केन्द्र बनता चला जा रहा है। ध्यान के प्रकार ध्यान के कई अंग-उपांग हैं। जैन धर्म में इसका कई प्रकार से वर्गीकरण मिलता है। ध्यान के मुख्य चार प्रकार हैं(१) आर्त ध्यान, (२) रौद्र ध्यान, (३) धर्म ध्यान, और (४) शुक्ल ध्यान । आर्त का अर्थ है पीड़ा, दुःख, चीत्कार। इस ध्यान में चित्तवृत्ति बाह्य विषयों की ओर उन्मुख रहती है। कभी अप्रिय वस्तु के मिलने पर और कभी प्रिय वस्तु के अलग होने पर आकुलता बनी रहती है। रौद्र का अर्थ है भयंकर, डरावना । इस ध्यान में हिंसा, झूठ, चोरी, विषयादि सेवन की पूर्ति में प्रवृत्ति रहती है और इनके बाधक तत्वों के प्रति द्वेष के कारण कठोर क्रूर भावना बनी रहती है। आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान दोनों त्याज्य हैं। आर्त ध्यान व्यक्ति को राग में बांधता है और रौद्र ध्यान द्वेष में। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ये दोनों ध्यान अनैच्छिक ध्यान की श्रेणी में आते हैं। इनके ध्यान में इच्छा शक्ति को कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है । ये मानव की पशु-प्रवृत्ति को संतुष्टि देने में ही लीन रहते हैं। इनका साधना की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है। ध्यान और चेतना ध्यान का संबंध चेतना के क्षेत्र से है। मनोवैज्ञानिकों ने चेतना के मुख्यत: तीन प्रकार बतलाये हैं: (१) जानना अर्थात् ज्ञान (Cognition) .. (२) अनुभव करना अर्थात् अनुभूति (Feeling), और (३) चेष्टा करना अर्थात् मानसिक सक्रियता (Conation) वी. नि. सं. २५०३ ८५ Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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