SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरे गुणस्थान के प्रभाव से विपरीत प्रवृत्ति भी विकासोन्मुख बनने लगती है । तीसरा गुणस्थान पहले और दूसरे गुणस्थान का मिश्र रूप होता है कभी दर्शन मोह मंद पड़ जाता है, कभी वह फिर सशक्त हो उठता है । तीसरे गुणस्थान में यह धूप-छांही चलती है । जब परमात्म स्वरूप को आत्मा देखने और समझने लगती है तो वह सब दृष्टि गुणस्थान में बैठती है यहां उसकी दृष्टि में सम्यक् घिरता है, किन्तु व्रताचरण की प्रवृत्ति बदलती नहीं है अविरति स्थिति बनी रहती है। चौवे गुणस्थानों से आगे के समस्त गुणस्थानों की दृष्टि सम्य मानी जानी चाहिए कारण आगे के गुणस्थानों में उत्तरोत्तर विकास, दृष्टि-मुद्धि और व्रतों की क्रियाशीलता के फलस्वरूप परिपुष्ट बनती चलती है । मोह की प्रधान शक्ति दर्शन-मोह के मंद होने से व चारित्र - मोह के शिथिल होने से पाँचवें गुणस्थान की अवस्था प्रारम्भ होती है और आत्मा अविरित-स्थिति से देश - विरति की स्थिति में प्रस्थान करती है । यहाँ मोह की उभय शक्तियों के विरुद्ध एक उत्क्रान्ति घटित हो जाती है । देश विरति से आत्मा को अपने भीतर स्फुरता एवं शान्ति की सच्ची अनुभूति होती है। यहाँ इस अनुभूति को विस्तृत विषय बनाना चाहती है और सर्वविरति के छठे गुणस्थान के सोपान पर पग रख देती है । यह सीढ़ी जड़ भावों के सर्वथा परिहार की सीढ़ी होती है । इस अवस्था में पौद्गलिक भावों पर मूर्छा समाप्त हो जाती है तथा संयमसाधना में गहरी निष्ठा उत्पन्न हो जाती है। फिर भी इस सोपान पर प्रमाद का कमोबेश प्रभाव बना रहता है । प्रमाद पर विजय पाने का सातवां गुणस्थान होता हैअप्रमादी साधु का । विशिष्ट आत्मिक शान्ति की अनुभूति के साथ विकासोन्मुखी आत्मा प्रमाद से जूझने में जुट जाती है। इस अद्वितीय संघर्ष में आत्मा का गुणस्थान कभी छठे और कभी सातवें में ऊँचा-नीचा रहता है। विकासोन्मुख आत्मा जब अपने विशिष्ट चरित्र बल को प्रकट करती है तथा प्रमाद को सर्वथा पराभूत कर लेती है तब वह आठवें गुणस्थान की भूमिका में पहुँच जाती है । पहले कभी नहीं हुई, ऐसी आत्म शुद्धि इस निवृत्ति- बादर गुणस्थान में होती है। आत्मा मोह के संस्कारों को अपनी संयम साधना एवं भावना के बल से दबाती है, और अपने पुरुषार्थ को प्रकट करती हुई उन्हें बिल्कुल उपशान्त कर देती है। दूसरी आत्मा ऐसी भी होती है, जो मोह के संस्कारों को जड़मूल से उखाड़ती चलती है तथा अन्ततोगत्वा सारे संस्कारों को सर्वदा निर्मूल कर देती है। इस प्रकार इस गुणस्थान में आत्म-शक्ति के स्वरूप स्थिति दो श्रेणियों में विभक्त हो जाती है । आत्म शक्तियों की ऊँची-नीची गति इन्हीं श्रेणियों का परिणाम होता है । मोह के संस्कारो को उपशान्त करने वाली आत्मा कभी-कभी इस गुणस्थान से तल वी. नि. सं. २५०३ Jain Education International तक पतित हो जाती है। ठीक जैसे अंगारे राख से ढंके हुए हो और हवा के एक तेज झोंके से सारी राख उड़ जाती है और अंगारे धगधग करने लगते हैं। पहली श्रेणी में ऐसी दुर्दशा सम्भव हो सकती है किन्तु दूसरी श्रेणी में प्रविष्ट आत्मा को ऐसे किसी अधःपतन की आशंका नहीं रहती । चाहे पहली श्रेणी वाली आत्मा हो या दूसरी, वह अपनी उत्कृष्टता से एक बार नवां दसवां गुणस्थान प्राप्त करती ही है । फिर ग्यारवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाली आत्मा एक बार अवश्य पतित हो जाती है। इस श्रेणी की आत्मा मोह को निर्मूल बना कर सीधे दसवें से बारहवें गुणस्थान में प्रवेश कर जाती है । जैसे ग्यारहवां गुणस्थान पुनरावृत्ति का है, वैसे ही बारहवां गुणस्थान अपुनरावृत्ति का है। ग्यारहवें गुणस्थान में प्रवेश करने वाली आत्मा का अधःपतन होता ही है, लेकिन उसको लांघकर बारहवें में प्रवेश कर जाने वाली आत्मा का परम उत्कर्ष असंदिग्ध हो जाता है । उपशम श्रेणी में पतन की आशंका रहती है तो क्षपक श्रेणी में उत्थान का अपरिमित विश्वास । इस दृष्टि से मोह का सर्वथा क्षय सर्वोच्च आत्म-विकास का पट्टा होता है । तेरहवें और चउदवें गुणस्थानों की भेद रेखा अति सूक्ष्म है, जिसे पार कर लेने पर आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेती है तथा परमात्म स्वरूप बन जाती है । मोह का आक्रमण- प्रत्याक्रमण मोहनीय भावों में आत्मा जब तक पूर्णतया संगीन दूबी रहती है तब तक वह मिथ्यात्व के अंधकार में भटकती रहती है और उसकी स्थिति पहले गुणस्थान में होती है । इस अवस्था में जब कभी किसी कारणवश दर्शन मोह के भावों में कुछ शिथिलता आती है तो आत्मा की विचारणा जड़ से चेतन की ओर मुड़ती है । चेतन की ओर मुड़ने का अर्थ है पर स्वरूप से हट कर स्व-स्वरूप की ओर दृष्टि का फैलाव है । चेतन तत्व अर्थात् निज स्वरूप की ओर दृष्टि जाने से उसे एक अभिनव रसास्वाद की आन्तरिक अनुभूति होती है जिससे मिथ्यात्व की ग्रंथी खटकने लगती है । इस समय आत्म-क्षेत्र रणभूमि बन जाता है । एक ओर मोह के संस्कार उनसे उभरने की निष्ठा बनाने वाली आत्म-शक्ति पर आक्रमण - प्रत्याक्रमण करते हैं तो दूसरी ओर जागरुकता की ओर बढ़ने वाली आत्म शक्तियां उन आक्रमणप्रत्याक्रमणों को झेलती है । इस युद्ध में आत्म-शक्तियां यदि विजयी होती हैं तो वे आत्मा को प्रथम गुणस्थान से तृतीय और चतुर्थ में पहुंचा देती हैं । किन्तु यदि मोह के संस्कारों की प्रबलता बनी रहती है तो ऊपर की भूमिकाओं से लुढ़क कर वह पुनः मिथ्या दृष्टित्व की खाई में गिर जाती है। इस पतन में आत्मा की जो अवस्था रहती है, वह दूसरा गुणस्थान होता है इस गुणस्थान में पहले की दा आम-अधिक होती है, लेकिन यह दूसरा गुणस्थान उत्क्रान्ति का स्थान नहीं होता । For Private & Personal Use Only ७७ www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy