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________________ है । अज्ञान एवं विकार की दशा में इस गर्त की पर्ते मोटी-सेमोटी चढ़ती जाती हैं और वे क्रमशः इतनी मोटी हो सकती हैं कि आत्मा की गुणों के ओर, उसकी शक्तियों की झलक तक दिखना बंद हो जाती है । आत्मा की इस स्थिति को हम उसकी पतितावस्था कह सकते हैं। किन्तु इस दृश्यहीन दर्पण को भी हम स्वभावहीन नहीं मान सकते क्योंकि उसका दृश्यत्व नष्ट नहीं हुआ है, बल्कि वह दब गया है। यदि पूरे मनोयोग और परिश्रम से उसे साफ करने का यत्न किया तो वह फिर से यथापूर्वक साफ हो सकता है, प्रतिबिम्ब उसमें फिर से वैसा-का-वैसा दिखाई दे सकता है । सही ज्ञान, सही आस्था, एवं सही आचरण की सहायता से इस संसारी आत्मा पर लगे कर्ममेल को धोने का कठिन प्रयास भी किया जाय तो भावना एवं साधना की उत्कृष्टता से आत्मा को उसके मूल-स्वरूप में उसे अवस्थित कर सकते हैं-पूर्ण निर्मल, पूर्ण सशक्त ।। इसी के साथ इस तरह कर्म-मुक्ति के अंतिम छोर की उपलब्धि हो जाती है। कर्म सिद्धान्त और गुणस्थान जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त मनुष्य को ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व अथवा भाग्यवाद के भ्रम से मुक्त करता है और उसे अपने भाग्य का स्वयं निर्माता होने का विश्वास दिलाता है । हम आज जो कुछ भी भुगत रहे हैं अच्छा या बुरा, निःसंदेह उसकी जड़ें भूतकाल में है, जिन्हें हमने काभी रोपा है । अर्थ स्पष्ट है कि मनुष्य या कोई भी प्राणी स्वयं अपने भाग्य का निर्माता तथा अपने कर्म भोग के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है । जैसा कर्म वैसा फल, यह है कर्मवाद । पाप कर्म आत्मा को डूबोता है, पुण्य उसे तिराता है। किन्तु पुण्य कर्म को भी नाव के समान छोड़ने पर ही दूसरे किनारे पर पाँव रखा जा सकता है । सभी प्रकार के कर्म क्षय के बाद ही मोक्ष का दूसरा तट हाथ लगता है । संसार के महोदधि में कौनसी आत्मा कितनी गहरी डुबी हई है या कौनसी किस ओर तैर रही है अथवा कौनसी कब किनारे लग जाएगी । इसकी जो मापक दृष्टि है, वही गुणस्थान दृष्टि है । आत्मा का गुण है उसका मूल स्वरूप । इसी की सम्पूर्ण उपलब्धि की दृष्टि से आत्मा के विकास सोपान का निर्णय गुण-स्थान की दृष्टि से ही सम्भव होता है । आत्मोत्थान के १४ सोपान मोह और योग के निमित्त से सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, एवं सम्यक् चारित्र रूप आत्मा के गुणों की तारतम्यता हीनाधिकता रूप अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते हैं । अन्य शब्दों में-मोह, मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अंतरंग परिणामों में प्रतिक्षण जो उतार-चढ़ाव होता है उसे गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थान के इस रूप में चौदह सौपान कहे गए हैं--१. मिथ्यात्व, २. सास्वादन, ३. मिश्र, ४. अविरति सम्यक् दृष्टि, ५. देश विरति श्रावक, ६. प्रमत संयत, ७. अप्रमत्त संयत, ८. निवृति बादर, ९. अनिवृति बादर, १०. सूक्ष्म सापराय, ११. उपशान्त मोहनीय, १२. क्षीण मोहनीय, १३. सयोगी केवली एवं १४. अयोगी केवली ।। आत्मा का मूल स्वरूप शुद्ध चेतनामय शक्ति संपन्न तथा आनन्दपूर्ण होता है । कर्मों के आवरण दर्पण की धूलि-पों की भांति उस स्वरूप को ढंक देते हैं। इन आठ कर्मों के आवरणों में सबसे अधिक सघन आवरण होता है मोहनीय का । इसे सब कर्मों का राजा कहा गया है । मोह आत्म-भावों में जब तक बलवान रहता है, दूसरे कर्मों के आवरण कठिन बने रहते हैं और यदि इस मोह दुर्ग की प्राचीरें तोड़ी जा सके तो अन्य कर्म सूखे पत्तों की तरह स्वयं झड़ने लगते हैं । मोह की प्रधान शक्तियाँ दो हैं--१. आत्मा के दर्शन को अवरुद्ध बनाती है । उसके स्वरूपानुभव को कुण्ठित करती है। २. यदि स्वरूपानुभव कदाच कुंठित न हो जाय तो भी उसे कर्म क्षय कराने वाली प्रवृत्तियों में जुटने नहीं देती । स्वरूप के यथार्थ दर्शन तथा उसमें स्थित होने के प्रयास रुद्ध करने वाली शक्तियाँ मोह कर्म की होती हैं। इन्हें दर्शन मोह एवं चारित्र मोह की संज्ञा दी गई है। आत्मा की विभिन्न स्वरूप स्थितियां इसी मोहनीय के हिंडोले में झूलते हुए बनती हैं । आत्मा का पतन और उत्थान, पतन से उत्थान और उत्थान से पतन पुनः इसी हिंडोले में होता है । जो आत्मा इन गुणस्थानों की स्थिति को समझ कर अपने मनो भावों आदि में आवश्यक संतुलन एवं स्थिरता अजित कर लेती है वह क्रमशः ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ती रहती है तथा अपनी साधना की अन्तिम परिणति मुक्ति प्राप्त कर लेती है। आत्म-शक्तियों का आरोह-अवरोह अविकसित तथा अध:पतित आत्मा की अवस्था प्रथम गुणस्थान में होती है । इसमें मोह की दोनों शक्तियों का जोर बना रहता है और वे दृढ़ता से आत्म स्वरूप को आच्छादित कर लेती हैं । इस अवस्था में आत्मा की आध्यात्मिक स्थिति लगभग पतित-सी होती है और कैसा भी आधिभौतिक उत्कर्ष के होने पर भी उसकी प्रवृत्ति तात्विक लक्ष्य से पूर्णतः शून्य ही बनी रहती है। ऐसी आत्मा की मति दिग्भ्रान्त होती है तथा वह विपरीत प्रवृत्ति में यात्रा करती रहती है । यही मिथ्या-दर्शन है । मिथ्यात्व नाम जड़ता का है, उस जड़ता का जिसमें मोह का प्रभाव प्रगाढ़तम होता है। जैसे ही अपनी विकास यात्रा के आरम्भ में आत्मा दर्शन मोह पर यथापेक्षित विजय प्राप्त करती है, वैसे ही वह प्रथम से द्वितीय गुणस्थान में प्रवेश कर लेती है। इस समय पर-स्वरूप में स्वरूप की जो भ्रान्ति होती है, वह दूर हो जाती है । जड़ रूप मिथ्यात्व से सास्वादन गुणस्थान चेतना की ज्योति प्रज्वलित कर देता है। राजेन्द्र-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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