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________________ रखता है। अतः जैन-दर्शन के कर्मवाद में पुरुषार्थवाद एवं प्रयत्नवाद को पर्याप्त अवकाश है। ईश्वर और कर्मवाद ईश्वरवादी दर्शनों के अनुसार ईश्वर जीवों के कर्मों के अनुसार ही उनके सुख-दुःख की व्यवस्था करता है। यह नहीं, कि अपने मन से ही वह किसी को मूर्ख बनाए और किसी को विद्वान। किसी को कुरूप बनाए और किसी को सुन्दर। किसी को राजा बनाये तो किसी को रंक । किसी को रोगी बनाये तो किसी को स्वस्थ । किसी को विपन्न बनाए तो किसी को सम्पन्न । जैसे जीवन के भलेबुरे कर्म होते हैं, वैसे ही वह व्यवस्था कर देता है। किसी भी जीव के जीवन में जब वह किसी भी प्रकार का परिवर्तन करता है, तब पहले वह उस जीव के कर्मों का लेखा-जोखा देख लेता है, उसी के अनुसार वह उसमें परिवर्तन कर सकता है। निश्चय ही यह उस सर्व शक्तिमान ईश्वर के साथ एक खिलवाड़ है। एक तरफ उसे सर्व शक्तिमान मानना और दूसरी ओर उसे स्वतंत्र होकर अणुमात्र भी परिवर्तन का अधिकार न देना निश्चच ही ईश्वर की महत्ती विडंबना है। यहां पर इस कथन से यह सिद्ध होता है कि कर्म की शक्ति ईश्वर से भी अधिक बलवती है। ईश्वर को भी उसके अधीन हो कर चलना पड़ता है। ईश्वर पर भी कर्मों का नियंत्रण हो गया। दूसरी ओर कर्म भी कुछ नहीं कर सकता। वह किसी चेतना शक्तिशाली का सहारा ले कर ही अपना फल देता है। इस प्रकार कर्म ईश्वर के अधीन और ईश्वर कर्म के अधीन बन जाता है। इसकी अपेक्षा स्वयं में ही अपने फल देने की बात क्यों न स्वीकार कर ली जाए, जिससे ईश्वर का ईश्वरत्व भी सुरक्षित रहे और कर्मवाद में भी किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो। जैन-दर्शन के अनुसार कर्म स्वयं अपना फल देता है, उसे फल देने के लिये किसी अन्य व्यक्ति एवं अन्य शक्ति की अपेक्षा नहीं रहती। कर्म स्वयं अपनी शक्ति से समय आने पर फल प्रदान कर देता है। ठीक उसी प्रकार जैसे भंग पीने पर वह स्वयं यथासमय अपना फल नशे के रूप में प्रदान करती है। नशा चढ़ने के लिये भंग किसी दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा और आवश्यकता नहीं समझती। कर्मवाद और अध्यात्म शास्त्र कर्मवाद अध्यात्मशास्त्र के विशाल एवं विराट भव्य भवन की आधारशिला है। कर्मवाद हमें यह बतलाता है कि आत्मा किसी भी शक्तिशाली और रहस्यपूर्ण व्यक्ति की इच्छा के अधीन नहीं है। कर्मवाद हमें प्रेरणा देता है कि, अपने संकल्प और विचार की पूर्ति के लिये किसी अन्य व्यक्ति के द्वार खटखटाने की आवश्यकता नहीं है। आपको जो कुछ भी पाना है वह आपके अन्दर से उपलब्ध होगा, कहीं बाहर से नहीं। इस विशाल विश्व में कौन किसको क्या दे सकता है। भीख मांगने से जीवन का कभी उत्थान नहीं हो सकता। किसी की दया एवं करुणा पर क्या कभी किसी का उत्थान एवं विकास हुआ है? कर्मवाद कहता है कि अपने पापों का नाश करने के लिये एवं अपने उत्थान के लिये हमें किसी शक्ति के आगे दया की भीख मांगने की आवश्यकता नहीं है। और न किसी के आगे रोने तथा गिड़गिड़ाने की ही आवश्यकता है। कर्मवाद का यह भी मन्तव्य है कि संसार की समग्र आत्माएं अपने स्वरूप से एक समान हैं, उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। फिर भी इस दृश्यमान जगत में जो कुछ विभेद नजर आता है, वह सब कर्मत है। जैन-दर्शन के कर्मवाद के अनुसार जो आत्मा विकास की चरम सीमा पर पहुंच जाती है, वह परमात्मा बन जाती है। आत्मा की शक्ति कर्म से आवृत्त होने के कारण अविकसित रहती है और आत्मबल द्वारा कर्म के आवरण को दूर कर देने पर उस शक्ति का विकास किया जा सकता है। विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच कर आत्मा परमात्म-स्वरूप को उपलब्ध कर लेता है। आत्मा किस प्रकार कर्मों से आवृत्त होता है और वह किस प्रकार उससे विमुक्त होता है, यह सब कुछ आपको कर्मशास्त्र के गंभीर अध्ययन से परिज्ञात हो सकता है। व्यवहार में कर्मवाद मानव-जीवन के दैनिक व्यवहार में कर्मवाद कितना उपयोगी है, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। कर्म-शास्त्र के पंडितों ने अपने-अपने युग में इस समस्या पर विचार-विमर्श किया है। हम अपने दैनिक व्यवहार में प्रतिदिन देखते हैं एवं अनुभव करते हैं कि जीवनरूप गगन में कभी सुख के सुहावने बादल आते हैं और कभी दुःख की घनघोर काली घटाएं छा जाती हैं। प्रतीत होता है कि यह जीवन विघ्न, बाधा, दुःख और विविध प्रकार के क्लेशों से भरा पड़ा है। इनके आने पर हम घबरा जाते हैं और हमारी बुद्धि अस्थिर हो जाती है। मानव-जीवन की वह घड़ी कितनी विकट होती है जबकि एक ओर मनुष्य को उसकी बाहरी प्रतिकूल परिस्थितियां परेशान करती हैं और दूसरी ओर इसके हृदय की व्याकुलता बढ़ जाती है। इस प्रकार की स्थिति में ज्ञानी एवं पंडितजन भी अपने वास्तविक मार्ग से भटक जाते हैं। हताश एवं निराश होकर वे अपने दुख-कष्ट, एवं क्लेश के लिये दूसरे को कोसने लगते हैं, उसको जो केवल बाह्य निमित है। मूल उपादान को भूल कर उसकी दृष्टि बाह्य निमित्त पर जा पहंचती है। इस प्रकार के विशेष प्रसंग पर वस्तुतः कर्मशास्त्र ही हमारे गंतव्य पथ को आलोकित कर सकता है और पथ-च्यत आत्मा को पूनः सन्मार्ग पर ला सकता है। कर्म-शास्त्र बतलाता है कि आत्मा अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। सुख और दुःख का मल कारण अपना कर्म ही है। वक्ष का मल कारण जैसे बीज है, वैसे ही मनुष्य के भौतिक जीवन का कारण इसका अपना कर्म ही होता है। सुख-दुख के इस कार्य-कारण भाव को समझाकर कर्मबाद मनुष्य को आकूलता एवं व्याकूलता के गहन गर्त से निकाल कर जीवन विकास की ओर चलने के लिये प्रेरित करता है। इस प्रकार कर्मवाद आत्मा को निराशा के झंझावातों से बचाता है, दुःख एवं क्लेश सहने की शक्ति देता है। और संकट के समय में भी बुद्धि को स्थिर रखने का दिव्य संदेश देता है। कर्मवाद में विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह विचार करता है कि स्वयं में जो अनकलता एवं प्रतिकूलता आती है उसका उत्पन्न करने वाला मैं स्वयं हैं। फलतः उसका अनुकूल एवं प्रतिकूल फल भी मुझे ही भोगना है। यह दृष्टि जीवन को शांत, सम्पन्न एवं आनन्दमय बना देती है। ६. राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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