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________________ फल भी तुझे ही स्वयं भोगना है। कभी यह हो नहीं सकता है कि कर्म तू स्वयं करे और उसका फल भोगनेवाला कोई दूसरा आए । जब मनुष्य अपने दुख और कष्ट में स्वयं अपने को कारण मान लेता है, तब उस कर्म के फल भोगने की शक्ति भी उसमें प्रकट हो जाती है। इस प्रकार कर्मवाद पर पूर्ण विश्वास हो जाने के बाद जीवन में से निराशा, तमिस्रा और आत्म-दीनता दूर हो जाती है। उसके लिए जीवन भोगभूमि न रह कर कर्तव्य-भूमि बन जाता है । जीवन में आने वाले सुख एवं मोक्ष के झंझावातों से उसका मन प्रकम्पित नहीं होता । कर्मवाद हमें यह बताता है कि आत्मा को सुख-दुख की गलियों में घुमानेवाला मनुष्य का कर्म है और यह कर्म मनुष्य के ही अतीत कर्मों का अवश्यंभावी परिणाम है । हमारी वर्तमान अवस्था जैसी और जो कुछ भी है, वह दूसरों द्वारा हम पर लादी नहीं गई है, बल्कि हम स्वयं उसके निर्माता हैं । मानव जीवन में जो कुछ भी सुख एवं दुख की अवस्थाएं आती हैं, उनका बनानेवाला कोई अन्य नहीं स्वयं मनुष्य ही है । अतएव जीवन में जो उत्थान और पतन आता है, जो विकास और ह्रास आता है तथा जो सुख और दुख आता है, उस सबका दायित्व हम पर है, किसी और दूसरे पर नहीं। एक दार्शनिक कहता है-"मैं स्वयं अपने भाग्य का निर्माता हैं । मैं स्वयं अपनी आत्मा का अधिनायक एवं अभिनेता हूं।" मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे कोई किसी अन्य मार्ग पर नहीं चला सकता । मेरे मन का पतन ही मेरा पतन है । मुझे न कोई उठानेवाला है और न गिरानेवाला । मैं स्वयं ही अपनी शक्ति से उठता हूं और स्वयं ही अपने शक्ति से गिरता भी हूं । अपने जीवन में मनुष्य जो कुछ जैसा और जितना पाता है, वह सब कुछ उसकी बोई हुई खेती का अच्छा या बुरा फल है । अत: जीवन में हताश, निराश, दीन और हीन बनने की आवश्यकता ही नहीं । कर्मवाद और पुरुषार्थ एक प्रश्न किया जा सकता है कि जब आत्मा अपने पूर्व हुत कर्मों का फल भोगता है फल भोगे बिना युटकारा संभव नहीं है, तब सुख प्राप्ति के लिये और दुःख निवृत्ति के लिये किसी प्रकार का प्रयत्न करना व्यर्थ ही है ? भाग्य में जो कुछ लिखा है, वह होकर ही रहेगा, वह कभी टल नहीं सकता, फिर किसी भी प्रकार की साधना करने का अर्थ ही क्या रहेगा? क्या कर्मबाद का यह मन्तव्य आत्मा को पुरुषार्थ से विमुख नहीं करता है। उसके समाधान में कहा जाता है कि-व्यवहार दृष्टि से यह सत्य है कि अच्छा या बुरा कर्म कभी नष्ट नहीं होता यह भी सत्य है कि प्रत्येक कर्म अपना फल अवश्य ही देता है। जो तीर हाथ से निकल चुका है, वह वापिस लौट कर हाथ में नहीं आता है। परन्तु निश्चय दृष्टि से जिस प्रकार सामने से वेग के साथ आता हुआ तीर पहले वाले से टकरा कर उसके वेग को रोक देता है, या उसकी दिशा को ही बदल देता है, ठीक उसी प्रकार कर्म भी शुभ एवं अशुभ परिणामों से कम और अधिक शक्ति वाले हो जाते हैं। दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाते हैं और कभी-कभी निष्फल भी हो जाते हैं। जैन दर्शन में कर्म की विविध अवस्थाओं का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार कर्म की उन विविध अवस्थाओं में एक निकाचित अवस्था ही ऐसी है, जिसमें कृत कर्म का फल अवश्य ही प्राप्त होता है। जैन दर्शन के कर्मवाद का मन्तव्य है कि आत्मा अपने प्रयत्न विशेष से अन्य विभिन्न कार्मिक अवस्थाओं में परिवर्तन कर सकता है। प्रकृति और प्रदेश, स्थिति और अनुभाग में परिवर्तन कर सकता है। एक कर्म को दूसरे कर्म के रूप में भी बदल सकता है। दो स्थिति वाले कर्म को ह्रस्व स्थिति में और तीव्र रस वाले कर्म को मन्द रस में बदल सकता है। बहु-दलिक कर्म को अल्प दलिक बना सकता है। जैन दर्शन के कर्मवाद के अनुसार कुछ कर्मों का वेदन (फल) विपाक से न होकर प्रदेश से ही हो जाता है। कर्मवाद के संबंध से उक्त कथन इस तथ्य को सिद्ध करता है कि कर्मबाद आत्मा को पुरुषार्थ से विमुख नहीं करता है, ब क पुरुषार्थ के लिये और अधिक प्रेरित करता है। पुरुषार्थ और प्रयत्न करने पर भी जब फल को उपलब्धि न हो, तब वहां कर्म की प्रबलता समझ कर धैर्य रखना चाहिये और यह विचार करना चाहिये कि मेरा पुरुषार्थ कर्म को प्रबलता के कारण मल हा आज सफल न हुआ हो, किन्तु कालान्तर में एक जन्मान्तर में वह अवश्य ही सफल होगा। कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसा विचित्र स्थिति आ जाती है कि मनुष्य किसी वस्तु को उपलब्धि के लिए प्रयत्न तो करता है, किन्तु उसे उसमें सफलता नहीं मिलता। फलतः वह हताश और निराश होकर बैठ जाता है। किन्तु जीवन की यह स्थिति बड़ी ही विचित्र एवं विडंबना पूर्ण है । क्योंकि वह मनुष्य यह विचार करता है कि मेरा पुरुषार्थ कुछ नहीं कर सकता, जो कुछ भाग्य में लिखा है, वह हो कर ही रहेगा। इस प्रकार की विषम स्थिति में साधक को कर्मवाद के संदर्भ में यह विचार करना चाहिये कि आज मेरा जो कर्म मुझे अच्छा या बुरा फल दे रहा है, आखिर वह कर्म भी तो मेरे अपने पुरुषार्थ से ही बना है। आज का पुरुषार्थ कल का कर्म बन जाता है। अत: पुरुषार्थ का परित्याग करके अपने जीवन की बागडोर को भाग्यवाद के हाथों में सौंप कर मनुष्य वार्यहीन एवं शक्तिहीन बन जाता है। मनुष्य के जीवन की इससे अधिना भयंकर विडंबना और विषमता क्या हो सकती है कि वह एक चेतना-पंज हो कर भी, अनन्त शक्ति का अधिनायक होकर भी जड़ कर्म के अधीन बन जाता है। पुरुषार्थवाद-मूलक कर्मवाद हमें उत्साहवर्धक प्रेरणा देता है कि भाग्यवाद से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जब आपके इस भाग्य का निर्माण आपके अतीत काल के पुरुषार्थ से हुआ है, तब आप यह विश्वास क्यों नहीं करते कि भविष्य में अपने पुरुषार्थ एवं प्रयत्न से अपने भाग्य को बदल भी सकता हूं। बुरे से अच्छा भी बन सकता हूं। जैन-दर्शन के कर्मवाद में मनुष्य अपने भाग्य की एवं नियति चक्र की कठपुतली मात्र नहीं है, इस आधार पर वह अपनी विवेक शक्ति से तथा अपने पुरुषार्थ एवं प्रयत्न से अपने कर्म को, अपने भाग्य को और अपने नियति चक्र को वह जैसा चाहे वैसा बदलने की क्षमता, योग्यता और शक्ति वी. नि. सं. २५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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