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________________ आवश्यकता इस बात की है, कि आप अनन्त अनन्त काल से विस्मृत अपने स्वरूप और अपनी शक्ति का परिबोध प्राप्त करने का प्रयत्न करें। इसी पर आपकी सफलता है । कुछ लोग कहा करते हैं, कि कर्म जब हलके हों तब आत्मा की शुद्धि हो, आत्मा पवित्र हो । और आत्मा की विशुद्धि एवं पवित्रता होने पर हो कर्म हल्के होते हैं। यह एक अन्योन्याश्रय दोष है । आत्मा की शुद्धि होने पर कर्म का हल्का होना और कर्म के हल्के होने पर आत्मा को विशुद्धि होना, इस प्रकार का अन्योन्याश्रित चिन्तन जैन दर्शन का मूल चिन्तन नहीं है। आत्मा की विशुद्धि और आत्मा की विमुक्ति कर्म के हल्के होने पर नहीं, बल्कि आत्मा के प्रसुप्त पुरुषार्थ को जागृत करने से होती है । भोग भोग कर कर्मों को हल्का करने की प्रक्रिया, एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसका कभी अन्त नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा जितना अपने कर्मों को भोगता है, उससे भी कहीं अधिक वह भोगकाल में राग-द्वेष में उलझ कर नये कर्म का बन्ध कर लेता है। इसलिये कर्म टूटें तो आत्मा विशुद्ध हों, यह सिद्धान्त नहीं है। बल्कि सिद्धान्त यह है कि आत्मा का शुद्ध पुरुषार्थं जागे तो कर्म हल्के हों । शास्त्रों में दो प्रकार की मुक्ति मानी है-- द्रव्य-मुक्ति और भाव मुक्ति दव्य मुक्ति प्रतिक्षण होती रहती है, क्योंकि आत्मा प्रतिक्षण अपने पूर्व कर्मों को भोग रहा है, किन्तु भाव-मुक्ति के बिना वास्तविक विमुक्ति नहीं मिल सकती है। द्रव्य की अपेक्षा भाव का मूल्य अधिक है, क्योंकि आत्मा के प्रसुप्त पुरुषार्थ को प्रबुद्ध करने की शक्ति द्रव्य में नहीं है, भाव में ही है, आत्मा का ज्ञान चेतना में ही है। आत्मा का जो स्वोन्मुखी पुरुषार्थ है। और आत्मा का जो वीतराग जागरण है, वस्तुतः वही भावमोक्ष है। साधना के द्वारा ज्योंही विकार-मुक्ति रूप भाव-मोक्ष होता है, साथ ही जड़ कर्म पुद्गलों से विमुक्तिस्वरूप, द्रव्यमोक्ष भी हो जाता है। मुख्य प्रश्न भाव-मोक्ष का है। द्रव्य-मोक्ष के लिये पुरुषार्थ करने की अलग से जरूरत नहीं है। कल्पना कीजिये, घर में अंधेरा है, दीपक जलाते ही प्रकाश हो जाता है। यहां पर क्या हुआ। पहले अंधकार नष्ट हुआ, भिर प्रकाश आया अथवा पहले प्रकाश हुआ और फिर अंधकार नष्ट हुआ । वस्तुतः दोनों के अलग-अलग कार्य नहीं हैं। प्रकाश का हो जाना ही अंधकार का नष्ट हो जाना है। और अंधकार का नष्ट हो जाना ही प्रकाश का हो जाना है । सिद्धान्त यह है कि प्रकाश और अंधकार का जन्म और मरण साथ-साथ ही होता है । जिस क्षण प्रकाश जन्मता है, उसी क्षण अंधकार मरता है। इधर प्रकाश होता है और अंधकार नष्ट हो जाता है। एक ही समय में एक का जन्म होता है और दूसरे का मरण हो जाता है। यही बात द्रव्यमोक्ष और भाव-मोक्ष के सम्बन्ध में भी है। ज्योंही भाव-मोक्ष हो जाता है त्यों ही द्रव्यमोक्ष भी हो जाता है। भाव-मोक्ष और द्रव्य-मोक्ष का जन्म एक साथ ही होता है, उसमें क्षणमात्र का भी अन्तर नहीं रह जाता । बी. नि. सं. २५०३ Jain Education International कहने का अभिप्राय यह है कि, कर्मों से लड़ने के पहले आत्मा के पुरुषार्थ को जागृत करने की आवश्यकता है । अंधकार को नष्ट करने के लिये शस्त्र ले कर लड़ने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि प्रकाश को जागृत करने की ही आवश्यकता है। प्रकाश को जागृग कर दिया तो अंधकार स्वयं ही नष्ट हो गया । प्रकाश की सत्ता के समक्ष अंधकार को सत्ता खड़ी नहीं रह सकती। यही बात कर्म और आत्मा के पुरुषार्थ के सम्बन्ध में भी है। आत्मा के पुरुषार्थ को जागृत करो। यही सबसे बड़ी साधना है । और यही कर्म-विमुक्ति का मूल कारण है। कुछ साधक इस प्रकार के हैं, जो कर्मों को बलवान मान कर चलते हैं और अपनी-अपनी आत्मा की शक्ति को भूल कर कर्मशक्ति के सामने झुक जाते हैं वे अपनी साधना में हताश और निराश हो जाते हैं। एक ओर वे साधना भी करते जाते हैं और दूसरी ओर वे कर्म की शक्ति का रोना भी रोते हैं। यदि आपके मन में यह दृढ़ विश्वास है कि आत्मा दुर्बल है, वह कुछ नहीं कर सकती, कर्म ही बलवान है, कर्म में ही अनन्त शक्ति है, तो आप हजारों जन्मों की साधना से भी कर्मों से विमुक्त नहीं हो सकते। यह बड़ी विचित्र बात है कि हम साधना तो करें, किन्तु साधना की अनन्त शक्ति में हमारा विश्वास न हो। यह तो वही बात हुई कि हम भोजन करके किसी से पूछे कि हमारी भूख कब मिटेगी और पानी पी कर यह पूछें कि हमारी प्यास कब मिटेगी। साधना करके यह पूछना कि मेरी विमुक्ति कब होगी । यह एक विचित्र प्रश्न है। इस प्रकार का प्रश्न उसी आत्मा में उठता है जिसे अपनी शक्ति पर विश्वास नहीं होता। एक साधक की आत्मा में इस प्रकार का दृढ़ विश्वास जागृत होना चाहिये कि काम, क्रोध आदि बिकल्प चाहे कितने ही प्रबल क्यों न हों, पर अन्त में, मैं उन पर विजय प्राप्त कर लूंगा आत्मा का जागरण ही हमारी साधना का एक मात्र लक्ष्य होना चाहिये । मुझे एक बार एक वयोवृद्ध श्रावक से बातचीत करने का अवसर मिला। वे बहुत बड़े साधक थे। संभवतः मेरे जन्मकाल से भी पहले ही वे साधना मार्ग पर चल पड़े थे। उस समय मैं वयस्क था और वे वयोवृद्ध थे। न जाने वह अपने जीवन में कितनी सामायिक कर चुके थे, कितने व्रत और उपवास कर चुके थे, कितने प्रतिपण कर चुके थे और न जाने कितनी माला जप चुके थे। परन्तु उनके जीवन में शान्ति और संतोष कभी नहीं आया । धन में और परिजन में उनकी बड़ी तीव्र आसक्ति थी । एक दिन जबकि वे सामायिक करके बैठे हुए थे, तो इन्होंने मेरे से पूछा -- महाराजजी ! आप बड़े ज्ञानी हैं, शास्त्रों के ज्ञाता हैं, आप यह बतालाइये कि मैं भव्य हूं या अभव्य हूं। मैंने अपने मन में सोचा - " यह क्या प्रश्न है ? यह प्रश्न तो साधना के प्रारम्भ में ही तय हो जाना चाहिये था।" मैंने उस वृद्ध श्रावक से कहा — जब तुम्हारे जीवन में आध्यात्मिक पुरुषार्थ जागा, जब तुम्हारे जीवन में संसार की वासना को दूर करने की भावना जागी और जब तुम्हारे जीवन में भगवान के सिद्धान्तों पर आस्था जागी, तभी यह समझ लेना चाहिये था कि मैं भव्य हूं, अभव्य ५३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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