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________________ कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप उपाध्याय अमरमुनिजी भारतीय दर्शन में कर्म और उसके फल के सम्बन्ध में गंभीरता से विचार किया गया है। कर्म क्या हैं ? और उसका फल कैसे मिलता है? तथा किस कर्म का क्या फल मिलता है? इस विषय में भारतीय दर्शन ने और भारत के तत्वदर्शी चिंतकों ने जितना गंभीर विचार किया है, उतना और वैसा पाश्चात्य दर्शन में नहीं किया गया है। भारतीय दर्शन में भी जैन-परंपरा ने कर्म और उसके स्वरूप के सम्बन्ध में जो गहन और विशाल चिन्तन प्रस्तुत किया है, वह विश्व के दार्शनिक इतिहास में वस्तुतः अद्भुत एवं विलक्षण है। कर्म, कर्म का फल और कर्म करने वाला, इन तीनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैन दर्शन के अनुसार जो कर्म का कर्ता होता है, वही कर्मफल का उपभोक्ता भी होता है। जो जीव जैसा कर्म करता है, उसके अनुसार वह शुभ अथवा अशुभ कर्म का फल प्राप्त करता है, संसार की विचित्रता का आधार यदि कोई तत्व है, तो वह कर्म ही है। मुझसे एक प्रश्न पूछा गया है कि आत्मा बलवान है? अथवा कर्म बलवान है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्राचीन साहित्य में बहुत कुछ कहा गया है। बहुत कुछ विचार किया गया है। बात यह है कि कर्म एक जड़ पुद्गल है। उसमें अनन्त शक्ति है। दूसरी ओर आत्मा भी एक चेतन तत्व है। और उसमें भी अनन्त शक्ति है। यदि कर्म में शक्ति नहीं होती तो संसार के ये नानाविध विचित्र खेल भी न होते। कर्म में शक्ति है तभी तो वह जीव को नाना गतियों में और विविध योनियों में परिभ्रमण कराता है। कर्म की शक्ति से इन्कार नहीं किया जा सकता है, किन्तु मूल प्रश्न यह है कि कर्म का कर्ता है आत्मा, आत्मा स्वयं अपने किये हुवे कर्मों से बद्ध हो जाता है। उस बंधन से मुक्त होने की शक्ति भी आत्मा में ही है। कर्म-पुद्गल चैतन्य शक्ति का सर्वथा सर्वदा घात नहीं कक सकते। अनन्त गगन में मेघों की कितनी भी घनघोर घटा छा जाएं, फिर भी वे सूर्य की प्रभा का सर्वथा विलोप नहीं कर सकती। बादलों में सूर्य को आच्छादित करने की शक्ति तो है किन्तु उसके आलोक को सर्वथा विलुप्त करने की शक्ति उन बादलों में भी नहीं है। यही बात आत्मा के सम्बन्ध में भी है। कर्म में आत्मा के सहज स्वाभाविक गुणों को आच्छादित करने की शक्ति है, इसमें जरा भी असत्य नहीं है, पर आत्मा को आच्छादित करने वाले कर्म कितने भी प्रगाढ़ क्यों न हों, उनमें आत्मा के एक भी गुण को मूलतः नष्ट करने की शक्ति नहीं है। दूसरी बात यह है, कि जैसे सूर्य स्वयं मेघों को उत्पन्न करता है, उनसे आच्छादित हो जाता है और फिर वही सूर्य अपनी शक्ति से उन्हें छिन्न-भिन्न भी कर डालता है। इसी प्रकार आत्मा भी स्वयं कर्मों को उत्पन्न करता है, उनसे आच्छादित हो आता है और फिर स्वयं ही उन कर्मों को निर्जरा द्वारा छिन्न-भिन्न भी कर डालता है। कर्म की शक्ति अनन्त मानने पर भी उसकी अपेक्षा आत्मा की अधिक है। कर्म शक्तिशाली होते हवे भी जड़ है और आत्मा चैतन्यरूप है। अत: आत्मा का संकल्प ही कर्म को उत्पन्न करता है और आत्मा का संकल्प ही कर्म को नष्ट कर डालता है। आपके जितने भी कर्म हैं, चाहे वे कितने ही बलवान क्यों न हों, लेकिन आत्मा के बल के आगे वे कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि कर्म को जो भी रूप मिला है वह आत्मा के ही संकल्पों से मिला है। आपको अपने इस वर्तमाल जीवन में कर्मों का जो रूप मिला है, यदि उसे आप नष्ट करना चाहते हैं तो उसे नष्ट करने की शक्ति आपके अन्दर है। लेकिन जब तक आत्मा में अज्ञान है और जब तक उसे अपने स्वरूप का भान नही है, तभो तक वह बन्धन में बद्ध रहता है। आपकी आत्मा केवल आत्मा ही नहीं है, बल्कि वह परमात्मा भी है। कर्म की शक्ति से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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