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________________ है । धम्मपद में निर्वाण को परम सुख, अच्युत स्थान, अमृत पद" कहा गया है जिसे प्राप्त कर लेने पर न च्युति का भय होता है न शोक होता है उसे शांत संसारोपशम एवं सुखपद भी कहा गया है ।1 इतिवृत्तक में कहा गया वह ध्रुव, न उत्पन्न होने वाला, शोक और राग रहित है । सभी दुखों का वहाँ निरोध हो जाता है। वह संस्कारों की शान्ति एवं सुख है। आचार्य बद्धघोष निर्वाण की भावात्मकता का समर्थन करते हुए विशुद्धिमग्ग में लिखते हैं “निर्वाण नहीं है ऐसा नहीं कहना चाहिये । प्रमेव और जरामरण के अभाव से नित्य है । अशिथिल पराक्रम सिद्ध होने से विशेष ज्ञान के द्वारा प्राप्त किए जाने से और सर्वज्ञ के वचन तथा परमार्थ से निर्वाण अविद्यमान नहीं है 143 निर्वाण की अभावात्मकता:--निर्वाण की अभावात्मकता के संबन्ध में उदान के रूप में निम्न बुद्ध वचन हैं "लोहे के धन की चोट पड़ने पर जो चिनगारियाँ उठती हैं सो तुरन्त बुझ जाती हैंकहाँ गई कुछ पता नहीं चलता। इसी प्रकार काम बन्धन से मुक्त हो निर्वाण पाये हुए पुरुष की गति कोई भी पता नहीं लगा सकता । शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई, सारी वेदनाओं को भी बिलकुल जला दिया। संस्कार शान्त हो गए, विज्ञान अस्त हो गया ।।46 लेकिन दीप शिखा और अग्नि के बुझ जाने अथवा संज्ञा के निरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा सकता। आचार्य बुद्धघोष विशुद्धिमग्ग में कहते हैं कि निरोध का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है । प्रो. कीथ एवं प्रो. नलिनाक्ष दत्त अग्निवच्छगोत्तसुत्त के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुझ जाने का अर्थ अभावात्मकता नहीं है वरन् अस्तित्व की रहस्यमय अवर्णनीय अवस्था है। प्रोफेसर कीथ के अनुसार निर्वाण अभाव नहीं वरन् चेतना का अपने मूल (वास्तविक शुद्ध) स्वरूप में अवस्थित होना है। प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त के शब्दों में "निर्वाण की अग्नि शिखा के बुझ जाने से, की जाने वाली तुलना समुचित है क्योंकि भारतीय चिन्तन में आग के बुझ जाने से तात्पर्य उसके अनस्तित्व से न हो कर उसका स्वाभाविक शुद्ध अव्यक्त अवस्था में चला जाना है जिसमें कि वह अपने दृश्य प्रगटन के पूर्व रही हुई थी। बौद्ध दार्शनिक संघभद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि की उपमा से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण अभाव है ।47' मिलिन्द प्रश्न के अनुसार भी निर्वाण धातु अस्ति धर्मः (अत्थिधम्म) एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है उसका लक्षण स्वरूपतः नहीं बताया जा सकता किन्तु गुणतः दृष्टांत के रूप में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार जल प्यास को शान्त करता है निर्वाण त्रिविध तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकृत कहने से भी उसकी एकान्त अभावात्मकता सिद्ध नहीं होती । आर्य (साधक) निर्वाण का उत्पाद नहीं करता, फिर भी वह उसका साक्षात्कार (साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ (प्राप्नोति) करता है । वस्तुतः निर्वाण को अभावात्मकरूप में इसलिये कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में भावात्मक भाषा की अपेक्षा अभावात्मक भाषा अधिक संगत होती है। निर्वाण की अनिर्वचनीयता:-निर्वाण की अनिर्वचनीयता के सम्बन्ध में निम्न बुद्ध वचन उपलब्ध है--"भिक्षुओ! न तो मैं उसे अगति और न गति कहता हूं, न स्थिति और न च्युति कहता हूँ, उसे उत्पत्ति भी नहीं कहता हूँ। वह न तो कहीं ठहरा है न प्रवर्तित होता है और न उसका कोई आधार है । यही दुःखों का अन्त है।"48 भिक्षुओ ! 40 अनन्त का समझना कठिन है, निर्वाण का समझना आसान नहीं है । ज्ञानी की तृष्णा नष्ट हो जाती है उसे (रागादिक्लेश) कुछ नहीं है ।50 जहाँ (निर्वाण) जल, पृथ्वी, अग्नि और वायु नहीं ठहरती, वहाँ न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते हैं । वहाँ चन्द्रमा की प्रभा नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता है। जब क्षीणश्रव भिक्षु अपने आपको जान लेता है तब रूप-अरूप, तथा सुख-दुख से छूट जाता है। उदान का यह वचन हमें गीता के उस कथन की याद दिला देता है जहाँ श्री कृष्ण कहते हैं कि जहाँ न पवन बहता है, न चद्र, सूर्य, प्रकाशित होते हैं, जहाँ पर पुनः पुनः इस संसार में आया नहीं जाता वही मेरा (आत्मा का) परमधाम (स्वस्थान) है। ४७. बौद्ध धर्म दर्शन पृ. २९४ पर उद्धृत ४८. उदान ८१ ४९. मूल पाली में यहाँ पाठातर है-तीन पाठ मिलते हैं । १. अनत्तं २. अनतं ३. अनन्तं । हमने यहाँ "अनन्तं" शब्द का अर्थ ग्रहण किया है । आदरणीय काश्यपजी ने अनत (अनात्म) पाठ को अधिक उपयुक्त माना है लेकिन अटकथा में दोनों ही अर्थ लिए गये हैं। ५०. उदान ८।३ ५१. यत्थ आपो न पठवी तेजो वायो न गाथति । न तथ्य सुक्का जोवन्ति आदिच्चो न प्पकामति ।। न तथ्य चन्दिमा भाति तमो तथ्य न विज्जति । उदान १।१० तुलना कीजिए-न तम्दासयते सूर्यों न शशांको न पावक । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तध्दाम परमं मम ।। गीता १५।६ ३८. उदान ८१३ पृ. ११०-१११ : ऐसा ही वर्णन इतिवृत्तक २।२।६ में भी है। ३९. धम्मपद २०३,२०४ (निर्वाण परम सुखं) ४०. अमतं सन्ति निब्वाण पदमत्वुतं-सुत्त-निपात-पारायण वग्ग ४१. धम्मपद ३६८ ४२. इत्तिवृत्तक २।२।६ ४३. विशुद्धिमग्ग (परिच्छेद १६ भाग २ पृ. ११९ से १२१) हिन्दी अनुवाद भिक्षु धर्मरक्षित । ४४. उदान पाटलिग्राम वर्ग ८1१० ४५. उदान ८।९ ४६. विशुछिमग्ग परिच्छेद ८ एवं १६ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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