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________________ है, चित्तप्रवृत्तियों का निरोध है ।" स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का क्षय है । असंग के अनुसार निवृत्त चित्त (निर्माण) अचित्त है, क्योंकि यह विषयों का ग्राहक नहीं है। वह अनुपलम्भ है क्योंकि उसका कोई बाह्य आलंबन नहीं है और इस प्रकार आलंबन रहित होने से वह लोकोत्तर ज्ञान है । दौष्ठुल्य अर्थात् आवरण (क्लेशावरण और क्षेयावरण) के नष्ट हो जाने सेनिवृत्ति (आयविज्ञान) परावृत नहीं होता, प्रवृत नहीं होता ।" वह अनावरण अनास्वधातु है, लेकिन असंग केवल इस निषेधात्मक विवेचन से संतुष्ट नहीं होते, वे निर्वाण की अनिर्वचनीय और भावात्मक व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं । निर्वाण अचिन्त्य है, क्योंकि तर्क से उसे जाना नहीं जा सकता लेकिन अचिन्त्य होते हुए भी वह कुशल है, शाश्वत है, सुखरूप है, विमुक्तकाय है और धर्मास्य है । इस प्रकार विज्ञानवादी मान्यता में निर्वाण की अभावपरक और भावपरक व्याख्याओं के साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्वीकार किया गया है। वस्तुतः निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप के विकास का श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है । लंकावतार सूत्र में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता है। लंकावसूत्र के अनुसार निर्वाण विचार की कोटियों के परे है लेकिन फिर भी विज्ञानवाद - निर्वाण को उस आधार पर नित्य माना जा सकता है कि निर्वाण लाभ से उत्पन्न ज्ञान होता है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर विज्ञानवादी निर्वाण का जैन विचारणा में निम्न अर्थों में साम्य है । १. निर्वाण चेतना का अभाव नहीं है वरन् विशुद्ध चेतना की अवस्था है । २. निर्वाण समस्त संकल्पों का क्षय है वह चेतना की निर्विकल्पावस्था है । ३. निर्वाणावस्था में भी चैतन्य धारा सतत प्रवाहमान रहती है ( आत्मपरिणामीपन ) । 33 यद्यपि डा. चन्द्रधर शर्मा ने आलय विज्ञान को अपरिवर्तनीय या कूटस्थ माना है लेकिन श्री बल्देव उपाध्याय उसे प्रवाहमान या परिवर्तनशील मानते हैं 134 ४. निर्वाणावस्था सर्वज्ञता की अवस्था है । जैन विचारणा के अनुसार उस अवस्था में केवलज्ञान और केवलदर्शन होते हैं । असंग ने महायान सूत्रालंकार में धर्मकाय जो निर्वाण की पर्यायवाची है, को स्वाभाविक काय कहा है । 35 जैन विचारणा भी मोक्ष को स्वभाव दशा कहता है । स्वाभाविक काय और स्वभावदशा अनेक अर्थों में अर्थसाम्य रखते हैं । २९. लंकावतार सूत्र - २।६२ ३०. ज्ञेयावरण प्रहाणमपि मोक्ष सर्वशत्याधिगमार्थम्- स्थिरमति त्रिंशिको वि. भा. पू. १५ ३१. अचित्तोऽनुपलम्भोऽसौ ज्ञानं लोकोचरं चतत । आश्रयस्यपरावृतिवातदोष्ठुल्य हानि-२९ ३२. स एवानासी धातुरविनयः कुशलो ध्रुवः निधिका ३० ३३. ए क्रिटीकल सर्वे आफ इंडियन फिलासफी । ३४. बौद्ध दर्शन मीमांसा ३५. महायान सूत्रालंकार ९१६०, महायान - शान्तिभिक्षु पृ. ७३ श्री. मि. सं. २५०३ Jain Education International शून्यवादः -- बौद्ध दर्शन के माध्यमिक संप्रदाय में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वाधिक विकास हुआ है। जैन तथा अन्य दार्शनिकों ने शून्यता का अभावात्मक अर्थ ग्रहण कर माध्यमिक निर्वाण को अभावात्मक रूप में देखा है। लेकिन यह उस संप्रदाय के दृष्टिकोण को समझने में सबसे बड़ी भ्रान्ति ही कही जा सकती है। माध्यमिक दृष्टि से निर्वाण अनिर्वचनीय है, चतुष्कोटि विनिर्मुक्त है, वही परम तत्व है। वह न भाव है, न अभाव है । 38 यदि वाणी से उसका निर्वचन करना ही आवश्यक हो तो मात्र यह कहा जा सकता है कि निर्वाण अप्रहाण, असम्प्राप्त, अनुच्छेद, अशाश्वत, अनिरुद्ध, अनुत्पन्न है । " निर्वाण को भाव रूप इसलिये नहीं माना जा सकता है कि भावात्मक वस्तु या तो नित्य होगी या अनित्य होगी। नित्य मानने पर निर्वाण के लिये प्रयासों का कोई अर्थ नहीं होगा । अनित्य मानने पर बिना प्रयास ही मोक्ष होगा । निर्वाण को अभाव भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा तथागत के द्वारा उसकी प्राप्ति का उपदेश क्यों दिया जाता । निर्वाण को प्रहाण सम्प्राप्त भी नहीं कहा जा सकता अन्यथा निर्वाण कृतक एवं कालिक होगा और यह मानना पड़ेगा कि वह काल विशेष में उत्पन्न हुआ और यदि वह उत्पन्न हुआ तो वह जरामरण के समान अनित्य ही होगा । निर्वाण को उच्छेद या शाश्वत भी नहीं कहा जा सकता अन्यथा शास्ता के मध्यम मार्ग का उल्लंघन होगा और हम उच्छेदवाद या शाश्वतवाद की मिथ्यादृष्टि से ग्रसित होंगे। इसलिये माध्यमिक नय में निर्वाण भाव और अभाव दोनों नहीं है। वह तो सर्व संकल्पनाओं का क्षय है, प्रपंचोपसमता है । बौद्ध दार्शनिकों एवं वर्तमान युग के विद्वानों में बौद्ध दर्शन में निर्वाण के स्वरूप को लेकर जो मतभेद दृष्टिगत होता है, उसका मूल कारण बुद्ध द्वारा निर्वाण का विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विवाद रूप से कथन किया जाना है। पाली - निकाय में निर्वाण के इन विविध स्वरूपों का विवेचन उपलब्ध होता है । उदान नामक लघु ग्रन्थ से ही निर्वाण के इन विविध रूपों को देखा जा सकता है। ! निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है: -- इस संबन्ध में बुद्ध वचन इस प्रकार हैं-'भिक्षुओं (निर्माण) अजात, अमृत, अकृत, असंस्कृत है । भिक्षुओ ! यदि यह अजात, अमूर्त, अकृत, असंस्कृत नहीं होता, तो जात, मूर्त और संस्कृत का व्युपशम नहीं हो सकता । भिक्षुओ ! क्योंकि वह अजात, अमूर्त, अकृत और असंस्कृत है इसलिये जात मूर्त कृत और संस्कृत का व्युपशम जाना जाता 1 ३६. भावाभाव परामर्शक्षयो निर्वाणं उच्यते । माध्यमिक कारिका वृत्ति पृ. ५२४ उद्धृत दी सेंट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म - टी. आर. व्ही. मूर्ती पृ. २७४ ३७. अप्रहाणम सम्प्राप्त मनुच्छिन्नमशाश्वतम् । अनिरुद्ध मनुत्पन्नेम तन्निर्वाणमुच्यते ।। For Private & Personal Use Only - माध्यमिक कारिका वृत्ति पृ. ५२१ ४९ www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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